शनिवार, 3 सितंबर 2022

भाँग में पड़ा कुँआ [ व्यंग्य ]

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✍️ शब्दकार ©

⌚ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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     घड़ी हमारा आभूषण है, शृंगार है।इसके बिना नर- नारी का जीना दुश्वार है।इसीलिए गाँवों की नई दुल्हिनें उसे झाड़ू -पोंछा लगाते समय,पानी भरते समय, दही बिलोते हुए,पालतू पशुओं को चारा पानी करते हुए तथा इसी प्रकार के अन्य सैकड़ों गृह -कार्य निबटाते हुए अपनी कलाई की शोभा बढ़ाने में कभी नहीं चूकतीं।पता नहीं कब घड़ी देखने की आवश्यकता पड़ जाए? बिना पढ़ी - लिखियों को तो औऱ भी ज्यादा जरूरत है ,ताकि देखने वाले उन्हें सुशिक्षित समझें।भले ही घड़ी देखना नहीं आता हो। घड़ी हमारा एक अनिवार्य शृंगार है।तभी तो उसे मोबाइल ,टीवी, लैपटॉप,कंप्यूटर और बहुत से खिलौनों आदि में  दिया जाने लगा है। क्योंकि बच्चों को भी तो समय देखने की आवश्यकता पड़ सकती है। इसलिए निर्माताओं ने सबका ध्यान  रखा है।हम सभी समय  -  प्रिय नागरिक जो हैं।

    यह तो हुई घड़ी की बात।अब आते हैं समय की प्रियता पर।हमारे देशवासियों की घुट्टी में यह घोल -घोल कर पिलाया जाता है कि कहीं भी समय से मत पहुंचना। यदि  भूल से भी समय से जा पहुँचे तो नेता को सुनने-  देखने के लिए भीड़ नहीं मिलेगी।इसलिए नेताजी का अटल नियम है कि चार -छः  घण्टे विलम्ब से ही जाओ।अन्यथा तुम्हारे नारे और जयकारे कौन लगाएगा।भीड़ है तो नेता है ,अन्यथा उसे भला कौन पूछता है!  इस प्रकार नेता का विलम्ब से पहुंचना एक नियम बन गया। अब जनता भी कम होशियार नहीं। वही पहले जाकर क्यों धूप  और धूल खाए? इसलिए टेंट ,माला, माइक लगाने वालों को छोड़कर वह भी आराम से सविलम्ब ही पहुँचती है। औऱ यदि सौभाग्य से आ भी गए तो उनके जाने तक भी आने वालों का तांता समाप्त नहीं होता। नेताजी तो अपने गुर्गों से मोबाइल से भीड़ का जायज़ा पहले से ही लेते रहते हैं कि हाँ भाई गुप्ता जी  कितने लोग आ गए ? उनकी सूचना पर ही नेताजी का कार या हेलीकॉप्टर का चालक आहूत किया जाता है कि अब चलें।मैदान भर गया है।

     नेताजी के सम्बंध में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि यदि वे समय से पहुँच गए तो उन्हें छोटा नेता माना जाता है। बड़ा नेता वही है जो या तो जनता को दिन में ही  प्रतीक्षा के  बड़े- बड़े तारे गिनवा दे  अथवा छह घण्टे बाद न आने वाली ट्रेन की तरह सूचना भेज दे कि नेता जी अन्यत्र व्यस्त हैं,इसलिए आने का कार्यक्रम रद्द कर दिया है। अब जनता गाली दे,तो देती रहे। जिस नेता को जितनी गालियां मिलती हैं, वह उनके लिए च्यवनप्राश की तरह यौवन वर्द्धक ही होता है। वह गाली प्रूफ जो होता है।

     स्कूल कालेज में पढ़ने जाते समय प्रायः वे विद्यार्थी जिनका घर संस्था के समीप ही स्थित होता है,घर से तब निकलते हैं ,जब चपरासी का घंटा  टन - टन की ध्वनि के साथ उन्हें आमंत्रित करने लगता है। कुछ अध्यापक तो अपना खेत जोतकर या दुकान चलाकर तब जाते हैं ,जब उनका पीरियड निकल चुका होता है। परंतु उन्हें इसका कोई गिला -शिकवा नहीं ।क्योंकि कोई भी देखने, सुनने औऱ कहने वाला ही नहीं  तो नई बहू भी तब उठती है ,जब सूरज की किरणें उसकी खिड़की में पैर पसारने लगती हैं।चिड़ियों का मादक संगीत उन्हें आहूत करने लगता है कि अब तो उठ जाओ। मुर्गे ने तो कब से बांग लगा- लगा कर थक हार कर बोलना बंद कर दिया। 

     शादी विवाह के निमंत्रण पत्रों में प्रतिभोज का समय 3 या 4 बजे का छपवाया जाता है,लेकिन शाम सात बजे से पहले जीमने वाले नहीं जाते। इससे भी उनका महत्व बढ़ता है।ज्यादा बड़े लोग तो केवल पाँच मिनट के लिए खुशबू सूँघने जाते हैं।उनके न खाने के कई रहस्यपूर्ण कारण हो सकते हैं। लेकिन हमें और आपको इससे क्या लेना- देना कि नेताजी ने क्यों नहीं भोजन किया? खाएँ तो ठीक और नहीं खाएँ तो भी ठीक। यदि नेताजी की राजनीति हमारी आपकी  समझ में आ जाए  तो उसकी नेतागिरी बेकार औऱ राजनीति दो कौड़ी न हो जाएगी?

     इस स्थान पर यह भी बतला देना परम् आवश्यक है कि एक  आध अँगुलियों के पोरों पर गिना जाने वाला स्थान ऐसा भी है ,जहाँ हम भारतीय बेचारों को समय से पहुंचना ही पड़ता है। जैसे ट्रेन छूटने के भय से स्टेशन पर, राशन या अन्य अंध रेवड़ी जैसी  चीज ख़त्म न हो जाए,इसलिए वितरण स्थल पर ,मुफ्त वितरण स्थल पर समय से नहीं ,समय -पूर्व जा धमकना हमारा स्वभाव है । प्रकृति है। सुकृति है। यह सभी स्थल भारतीय जन मानस की बेचारगी के सशक्त प्रमाण हैं ।इसीलिए तो हम भारतीय धन्य हैं और अपनी पीठ अपने आप थपथपाने में नहीं चूकते,नहीं थकते।

     हमारे देश में मुहूर्त देखने  और पत्रा देखने का विशेष पवित्र संस्कार है। शुभ मुहूर्त के अनुसार तेल,ताई, लग्न,भाँवर आदि संस्कारों को नियोजित किया जाता है।किंतु कोई भी शुभ कार्य करते समय उसे विस्मृत कर उसे उठाकर ताक पर सजा दिया जाता है।सभी कार्य घर वालों की मनमर्जी से सुविधानुसार किये जाते हैं।समय के  महत्त्व को ताड़ के पेड़ पर टाँगने के चाहे जो नतीजे हों ,लेकिन उसका विवाह ,शादी, गृह- प्रवेश, दुकान आदि के मुहूर्त, उद्घाटन आदि में कोई भी महत्त्व नहीं माना जाता। भारतीय समय- प्रियता के कारण भारतीय- समय(आई एस टी) एक सजीला मज़ाक बनकर रह गया है। बना रहे। जो समय को नष्ट करता है, समय भी अपनी करनी में नहीं चूकता। देश के मुहूर्त, पत्रा, कुंडली, सब का ऐसा घालमेल देश के वासियों की छवि में चार नहीं , चार सौ चालीस चाँद से चमका रहा है।हमें ऐसे ही भारतीय होने पर गर्व करने  का परामर्श ही नहीं दिया जाता ,हमें फूलकर कुप्पा होने के लिए भी प्रेरित किया जाता है। कुएँ में भाँग नहीं पड़ी ,भाँग में कुँआ पड़ा हुआ है।


🪴 शुभमस्तु!

०३.०९.२०२२◆५.३०

पतनम मार्तण्डस्य।

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