बुधवार, 7 सितंबर 2022

अद्भुत रचना! 🪔 [ कुंडलिया ]

 363/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🪸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

रचना  मेरे  राम की,मानव - तन  अनमोल।

त्वचावरण  में हैं ढँके,अंग न सकते   बोल।।

अंग न सकते बोल,हृदय , यकृत, दो  गुर्दा।

शीश मध्य मष्तिष्क,बिना इनके तन  मुर्दा।।

'शुभम्'नाक दो आँख,कान दो एकल रसना।

असित लहरते बाल,अंग बहु निर्मित रचना।


                         -2-

रचना  मानव-देह  की,रखना सदा  सँभाल।

काज करें ये  हाथ  दो,सुदृढ़ सुघर  कपाल।।

सुदृढ़  सुघर  कपाल, चरण दो यात्रा   करते।

ढोते  तन   का  भार,नहीं चलने   से  डरते।।

'शुभम्'देख कटि क्षीण,लार टपकाती रसना।

नारी  के प्रति भाव,बदलती उर  की रचना।।


                         -3-

रचना मानव तन जटिल,किए बहुत ही शोध

विज्ञानी  हारे नहीं,  प्राप्त किए   बहु  बोध।।

प्राप्त किए बहु बोध, चिकित्सक ईश्वर जैसे।

करते   अनुसंधान,  नहीं   जन सोचें   ऐसे।।

'शुभम्' देह का ज्ञान,गूढ़ अति नर से बचना।

विकट चरित के खेल,न समझे कोई रचना।।


                         -4-

रचना  की जन- सृष्टि में, नारी की  सुविचार।

रहे  संतुलन विश्व का, हो  न पुरुष भरमार।।

हो न  पुरुष भरमार,  निरंकुशता सब  नासे।

देखे  पत्नी  गेह, शेष  सब आशा   माँ  से।।

'शुभम्' न सोचा ईश,नहीं तिय इतना कसना।

काँपे गृहपति सास, विकृत होती गृहरचना।।


                          -5-

रचना मानव-सृष्टि की,कूट पीस  ली छान।

माटी जो  साँचे ढली,प्रतिमा बनी   महान।।

प्रतिमा  बनी  महान,बनाए नर   या  नारी।

फँसी  प्रेमिका   बीच, छोर पत्नी  महतारी।।

'शुभम्' वासना-धार,किसी का माला जपना।

सदाचरण का क्रोड़,बदलता मानव  रचना।।


🪴 शुभमस्तु!


०७.०९.२०२२◆१०.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।


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