गुरुवार, 22 सितंबर 2022

पंक - साधना में खोए 🪷 [ गीत ]

 378/2022


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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पंक -  साधना  में  खोए हैं,

कंज -भक्त कहलाएँ।


कीचड़  की  होली  होती  है,

फागुन से फागुन तक।

बगुले  नाच  रहे   कीचड़   में,

दृष्टि लगाए  इकटक।।

कैसे   कोयल  बोले!

अपनी रसना खोले!!

गंगा,   गीता,   गौमाता    के

नामों से बहकाएँ।


वानर उछल -उछल कानन में,

बेच   रहा तरु , झाड़ी।

मत की  चाहत  में नित टपके,

सजी  रँगीली  साड़ी।।

हाथ तराजू ले ले!

फेंक रहा है केले!!

ये   लूट   बिना   पैसे   की  है,

कानन को बहलाएँ।


खुरच-खुरच कर मिटा रहा है,

इतिहासों का लेखा।

परचम ऊँचा   दिखा   सजाए,

सबने सब कुछ देखा।।

है धमकी धौंस धुआँ!

खाई भी उधर कुआँ!!

समझ   नहीं  पाता  है बेवश,

कहाँ किधर अब जाएँ।


सच  कोने  में  सुबक  रहा है,

भाषण करता  झूठा।

मनमानी   का  पकड़ तिरंगा,

फहरा  दिखा अँगूठा।।

छत पर थोड़ा झाँकें!

बुद्धिहीनता   आँकें!!

इससे  तो  जंगल  शुभकारी,

शुद्ध हवा तो पाएँ।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०९.२०२२◆१०.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।

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