कोहरा छाया है
पौष का महीना
काँपती काया है।
छोटे- छोटे दिन हैं
लंबी - लंबी रातें
हम तुम बिन हैं।
ठिठुरन बढ़ रही
टपकते हुए पात
शीत लहर चढ़ रही।
झुरमुट में पिड़कुलिया
बैठी हैं गम्भीर मौन
गलगलिया गौरेया ।
मौन वृक्ष औ' लताएँ
तपस्वीवत चादर ओढ़
शीत सबको सताए।
ऋतु नहीं पावस की,
तरु तले टपकती बूँदें
शीत रात है अमावस की।
हनुमान किरीट की छटा
खिल उठी कली -कली
सघन शिशिर में लता ।
जाड़ा ही जाड़ा है
गरमी जो लेनी हो
चाय कॉफी काढ़ा है।
प्रणय की ऊष्मा है
जीवन - संगी के संग
यौवन की सुषमा है।
आलू के खेत में
उठती हुई दूधिया वाष्प
फटे झौरों के वेग से।
ओढ़े हुए दुग्ध चादर
गंगा - धार अविरल
शांत गम्भीर सुघर।
न हिलती हैं डालियाँ
ठिठुरे हुए द्रुम लताएँ
न झूम रहीं बलियाँ।
हँसता हुआ गेंदा है
खिलखिलाता है गुलाब
जामुन है न फरेंदा है।
मौन खड़े नीम हैं
पीपल वट शीशम भी
तपस्या में लीन हैं।
धूप गुनगुनाती - सी
सहलाती बुलाती - सी
अपनापन लाती - सी।
सौंधा सरसों का साग
रोटी बाजरे की गरम
चने के भी खुले भाग।
गरम मधुर शकरकन्द
चटनी संग आलू भुने
शीत के सुहाने छन्द।
💐 शुभमस्तु!
✍🏼©रचयिता
डॉ.भगवत स्वरूप " शुभम"
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