शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

समय घड़ी [ बाल -कविता]

दिन भर  चलती  रहती हूँ,
कभी  नहीं  मैं  रुकती  हूँ,
नहीं  रात को  मैं  सोती हूँ,
नहीं थकित भी मैं होती हूँ,
मैं कहलाती समय -घड़ी।

दीवारों  पर    टंगी  हुई  मैं,
हाथ - कलाई  बँधी  हुई मैं,
कम्प्यूटर  मोबाइल  में  भी,
गिरजा और देवालय में भी,
मैं  कहलाती  समय -घड़ी।

बार - बार तुम मुझे देखते,
टाँग पीठ पर  अपने बस्ते,
चलते मुझे देख विद्यालय,
घण्टे बजते  घर  देवालय,
मैं  कहलाती समय -घड़ी।

घड़ी -घड़ी  पर घण्टा लगता,
पढ़ने का तब विषय बदलता,
चपरासी टन - टन है  करता,
कान तेरा झन-झन है करता,
मैं  कहलाती  समय - घड़ी।

सूरज सदा समय से उगता,
रात में चन्दा  मामा चलता,
समय से  बँधे  हुए  वे सारे,
'शुभम'वे रहते घड़ी बिना रे,
मैं  कहलाती  समय - घड़ी।

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
🍃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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