रविवार, 9 दिसंबर 2018

सत्ता तो मोबाइल है [दोहे]

हाथ जोड़ नेता खड़ा, जन जनता के द्वार।
पैरों में टोपी रखी,दूर खड़ी कर कार।।

पाँच साल के बाद में , जनता आई याद।
चेहरे पर मुस्कान है, बदला रसना स्वाद।।

लगवाता था तेल जो,लाया मक्खन आज।
खा लो जितना खा सको, जनता का है राज।।

मक्खन खाने से अधिक, श्रेष्ठ लगाना मित्र।
जिसको मन से लग गया, चमके चेहरा चित्र।।

दारू के ठेका सभी,  दीवाली में चूर।
बूझें या कि दीपक जलें, लाभ उन्हें भरपूर।।

जो चावल हाँडी रखे, उन्हें टटोलो यार।
पके हैं या कच्चे रहे,कैसी चली बयार।।

बदले करवट ऊँट क्या, इस पर टिकी निगाह।
दाएँ या बाएँ रहे,क्या जनता की चाह।।

सत्ता तो मोबाइल है,चलते -फिरते खेल।
आज तुम्हारे हाथ में,काल किसी से मेल।।

जनता ही जनतंत्र की, होती सच्ची रीढ़।
काम न आवे बूथ पर,भाड़े की जड़ भीड़।।

जनता का लोहू पिया, चूसे हड्डी माँस।
जीवित तो छोड़ो उन्हें,शेष बची है साँस।।

नेताजी निज वेष में , गए देश को भूल।
सूट- बूट मैला हुआ ,खाता दिनभर धूल।।

💐शुभमस्तु!
✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप " शूभम"

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