जो सिर के ऊपर
निकल जाए,
जो मस्तिष्क को
कुरेद-कुरेद खाए,
मर्म को छू
भी न पाए,
डाक्टर के पर्चे की तरह
केमिस्ट समझ जाए,
खुद ही समझे
या खुदा समझ पाए।
न कोई रस हो
न हो छन्द का बन्ध,
न तुक हो न सही लय
उछल-उछल चले स्वछन्द।
न संगीत न झनकार
विलुप्त हो लय औऱ ताल,
उखड़ी -उखड़ी चाल,
नीरसता का फैलाती हुई जाल।
विचारों का क्लिष्ट संगुम्फन
ज्यों फैलाता फुंफकारता फन,
आत्मश्लाघा आत्मप्रवंचन
प्रलाप सी करती कविता बेमन।
वही श्रेष्ठता उत्कृष्टता की कसौटी
कहीं दुबली -पतली कहीं मोटी,
रचयिता उसका विद्वान महान
अकविता की अद्भुत शान।
💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
🥨डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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