रविवार, 23 दिसंबर 2018

यहाँ कोई आदमी नहीं है! [ लघुकथा ]

   सुबह के लगभग साढ़े ग्यारह बजे होंगे। मैंने  बैंक  के काउंटर पर प्रविष्टि हेतु पासबुक दी।उधर से बाबू जी बोले- 'यहाँ कोई आदमी नहीं है, इसलिए पासबुक में एंट्री नहीं हो सकती।' मैंने विचार किया : बात एकदम सही है।   यहाँ यदि कोई आदमी होता तभी तो पास बुक प्रिंट करता । यहाँ तो सभी  वो हैं, जो चाहे कुछ भी हों ,पर आदमी तो लगते  नहीं , क्योंकि इनमें आदमियत ही नहीं है।यदि इनमें आदमियत बची होती तो ज़रूर ऐसा जवाब  नहीं मिलता जो एक गैर आदमियत वाला जंतु ही दे सकता है। ये है आज का आदमी देहधारी प्राणी, जिसकी किंतनी निरर्थक है दायित्वविहीन वाणी। उधर आए दिन इनकी हड़ताल, कैसे हो आदमी की सही पड़ताल? जो इंसान को इंसान न समझे , जिम्मेदारी को जिम्मेदारी न समझे! सरकार से आए दिन इनका रोना, बिना माँग पूरी किए काम नहीं होना। आम जनता के लिए बहाने बोना, काम का समय पर न होना। कभी सर्वर डाउन का बहाना, ग्राहक को इधर से उधर नचाना। कभी नेट का न होना।
    कभी बाबू का न होना। अरे! भाई जब कार्यालय में आदमी ही नहीं तो कैसे चले कार्य  का आलय और कैसे हो सके कार्य।वहाँ तो आदमी से इतर प्राणी ही ऑफिस पर कब्जा किये बैठें हैं। कोई आदमी ही नहीं है। धन्य मेरे देश ! देशवासियो अब नौचो अपने केश!

💐शुभमस्तु !
✍🏼©लेखक
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

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