पौष पुष्ट जब से हुआ, थर-थर काँपे देह।
बिन बादल बरसात है, बरसे अम्बर मेह।।
बरसे अम्बर मेह, छा रहा गहरा कोहरा।
पंक्षी तरु तल छिपे, ठिठुर तन मानव दोहरा।।
"शुभम"पहन जरसी सुखद, मफ़लर कस के खोंस।
नग्न देह पशु क्या करे,शी-शी करता पौष।।
लाल लाल सूरज उगा, हुई गुनगिनी भोर।
धूप खिली पंक्षी जगे,डाली -डाली शोर।।
डाली-डाली शोर,उछलते मुर्गी चूजे।
अगियाने की आग , चमकते आलू भूजे।
"शुभम"देख रवि की तपन, शीत बदलता चाल।
चुपके से जाने लगा, देखा चेहरा लाल।।
साँझ ढली सोई दिशा, कोहरा तम घनघोर।
गौरेया निज नीड़ में, शांत न कलरव कोर।।
शांत न कलरव कोर, ओस कण की प्रभुताई।
ज्यों -ज्यों बढ़ती रात, नारि-नर गए रजाई।।
"शुभम"तनी चादर सघन, लखे न कोहरे माँझ।
मौन तपस्वी -से खड़े ,पीपल वट तरु साँझ।।
नरम बाजरे की गरम, रोटी सरसों -साग।
सौगातें सौ शीत की, जिसके भी हों भाग।।
जिसके भी हों भाग, चने का साग हरा -सा।
तिल के मोदक मधुर,पराँठा गरम भरा -सा।।
रायता बथुए का "शुभम", रोचक नहीं भरम।
शकरकन्द की खीर का,स्वाद हो गरमा-गरम।।
गंगा यमुना सरस्वती, बहती शांत सु-धार।
कैसे कहें निनादिनी,सौम्य सरल जलधार।।
सौम्य सरल जलधार, वाष्प कोहरे की चादर।
आवृत नीर अदृश्य, स्न्नान करते नर सादर।
"शुभम" कुंभ का पर्व है, मेरा मन तो चंगा।
फुव्वारे में बैठकर, नहा रहे नित गंगा।।
💐 शुभमस्तु !
✍🏼© रचयिता
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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