सब जगह फूल हों ऐसा भी नहीं है,
सभी जगह शूल हों ऐसा भी नहीं है।
आदमी की देह में सभी आदमी हों,
दुनिया में देख लिया ऐसा भी नहीं है।
बाहर से दिखता है देवता मानव ये,
दानव न सोया हो ऐसा भी नहीं है।
पंचों की सर्वमान्य, खूँटा वहीं गढ़ना है,
ऐसे हों मानुष सब ऐसा भी नहीं है।
कवियों और शायरों के अहं भी कम नहीं,
आदमियत भरपूर हो ऐसा भी नहीं है।
विशाल हृदय कितने हैं गणना मात्र अँगुली पर,
अपनी तरह सोचें जो ऐसा भी नहीं है।
दुर्योधनों के साथ में हज़ारों लाखों हैं,
पांडव हों अकेले ही ऐसा भी नहीं है।
फूल हूँ एक दिन मुझे मुरझाना है,
दुर्गंध ही बिखेरूँ मैं ऐसा भी नहीं है।
मैंने उन्हें देखा या जाना भी नहीं ' 'शुभम',
न्याय की न बात करें ऐसा भी नहीं है।
💐 शुभमस्तु !
✍🏼©सजलकार
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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