शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

नारी-श्रृंगार [शृंगारिक दोहे]

नेह - नीर जब से पिया,
पल - पल बढ़ती प्यास।
जब   नयनों  से   दूर  वे
मेरे   हिय   के   पास  ।।1।।

पायलिया   रुनझुन  करे,
शरद     शिशिर    हेमन्त।
बीते   पावस    मास  भी,
गेह       पधारो     कंत।।2।।

 मुख  से आवे  बैन  नहिं,
चलें     नैन     की    सैन।
नींद   न    आवे   रैन   में 
दिवस    न पाऊं  चैन ।।3।।

कजरा   गजरा    महकता,
पावँ      महावर      लाल ।
पायल कुछ -कुछ बोलती,
गजगामिनी की  चाल।।4।।

लाल अधर  मधुरस  भरे
नयन    विनत    रतनार।
क्यारी नवल  सुहाग की
सुमन  नवोढ़ा  नार ।।5।।

केहरि  कटि गजगामिनी,
अम्बर  भ्रमर   किलोल ।
उरज  नगद्वय  अमृतधर
उर अति गोप्य हिलोल।।6।।

बिछुआ  पायल  करधनी,
गले      सुशोभित     हार ।
नथनी  बाला  की  पृथक,
छटा  छिटकती   नार।।7।।

हाथ टेक निज चिबुक पर
प्रोषितपतिका         नार ।
बाट  जोहती    दिवस भर,
खड़ी  गेह   के   द्वार।।8।।

कान्तिधारिणी कान्ति की,
जीवित      प्रतिमा    देख ।
धन्य! धन्य !! उर ने कहा,
अद्भुत    बाला   पेख।।9।।

"शुभम" धरा पर नारि बिन,
शुष्क      सकल     संसार।
मानव - जीवन का अमृत,
 सृष्टि सुचरिता नार।।10।।

💐शुभमस्तु!💐
✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

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