अच्छे दिनों की
परिभाषा नहीं होती,
नारेबाजों से भी कोई
आशा नहीं होती,
हंस चुगते रहे कंकड़
कौवे खा रहे मोती,
कौवों ने कब
चाहा है हंस को,
उन्हें तो भाता रहा है
कि ध्वंस हो।
सपने दिखाना भी
बहुत ज़रूरी है,
यही तो उनके
धर्म की मजबूरी है,
किसने कहा कि
इन्हें पूरा होना है,
दिखाकर तोड़ देना ही
तो उनका सपना है।
चील के घोंसले में
ढूँढते हो माँस!
खोखले वादों पर
करते हो विश्वास?
आश्वासन नहीं है
उदर का राशन,
समाधान नहीं है
चर्मजिह्वी भाषण,
नीति की बातें भी
इनकी राजनीति है,
एक ही प्याले में पीते हैं
पर कोई न मीत है।
रातों रात बदल जाते हैं
गाड़ियों के झण्डे,
जैसे इन्हें आलू गोभी
वैसे मुर्गी के अंडे,
यही तो है इनका समाजवाद
जहाँ गड्ड मड्ड हैं सर्वस्वाद,
न कोई इनकी जाति
न कोई धर्म है,
पर जातिवाद प्रसारण ही
इनका मुख्य कर्म है!
जातितंत्र पर ही टिका है
यहाँ का लोकतंत्र,
आम को चूस लेने का
यही है मात्र मूलमंत्र।
मत समझ लेना कि
तुम स्वतंत्र हो
हर काम के लिए!
तुम सभी परतंत्र हो
बस नेता ही स्वतंत्र हैं
भले ही सुबह से शाम तक पियें
शान से जियें।
💐शुभमस्तु !
✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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