सोमवार, 31 दिसंबर 2018

जीवन [ मुक्तक ]

दिन बदलते गए रातें ढलती गईं,
ज़िंदगी यों ही  राहें बदलती गई,
पीछे मुड़कर जो देखा हमने 'शुभम,
घड़ियाँ बालू -सी कर से फिसलती गई।

सुख में तो   साथी   बहुत हो गए,
कोई दिखता नहीं जब हम रो गए,
तिनके का सहारा बहुत था 'शुभम'
जो कहते थे अपना कहाँ खो गए।

सुख स्थिर नहीं तो दुःख क्यों रहे,
घड़ी की  सुइयाँ  नीचे  ऊपर  रहें,
एक वक़्त में एक ऊपर नीचे 'शुभम'
सुख दुःख का समय भी यों ही रहे।

मेरे हँसने पर  जमाना हँसने लगा,
मैं रोया तो जमाना खिसकने लगा,
दोष मढ़कर मेरे सिर मुझ पर हँसा,
निज को भी कसौटी न कसने लगा।

जीवन जीने का नियम भी सुनहरा नहीं,
कोई कह दे कि इस पर चलना सही,
सबको अपनी राहें बनानी हैं 'शुभम',
ज़िंदगी सदा रंगों को बदलती रही।

💐शुभमस्तु ! 
✍🏼रचयिता©
☘ डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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