513/2023
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●© शब्दकार
● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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वह बाहर है तो
अंदर भी है,
माचिस की
डिब्बी में बंद,
बड़ी ही हुनरमंद,
जलाना ही
उसका काम,
सुबह से शाम।
भीतर एक नहीं
दो - दो ,
दोनों ही अदृश्य
साथ ही अ-वश्य,
कौन नहीं जानता
जठराग्नि को,
और दूसरी भी
ईर्ष्याग्नि को।
परिचय क्या कराना!
और समझदार को
क्या समझाना ?
दोनों ही
स्वतः लग जाती हैं,
लग जाएँ तो
बुझाए न बुझ पाती हैं!
आदमी है ही वह चीज
जो किसी की बढ़ती को
नहीं देख पाता,
भीतर ही भीतर
सुलगता ही नहीं
खाक हुआ जाता!
कह भी नहीं पाता,
बस उसकी आँखों
चेहरे के रंगों
बदलते हुए ढंगों से
पारे का चढ़ाव
दिख ही जाता।
जो जितना तामसी
उतनी ही तेज 'यह' आग,
नहीं देखता
अपना कर्म
अपना भाग,
जलता है स्वयं
किसी का बाल भी
झुलसा नहीं पाता,
दिलजलों को
कौन नहीं जानता?
पर दिलजला
इसे सच नहीं मानता।
● शुभमस्तु !
30.11.2023●6.00 प०मा०
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