रविवार, 12 नवंबर 2023

मेरी सुनो ● [ व्यंग्य ]

 486/2023 

 मेरी सुनो ● 

 [ व्यंग्य ]

 ●●●●●●●●●●●●●●●●●●●● 

●© व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

●●●●●●●●●●●●●●●●●●●● 

मनुष्य ने मनुष्य को मनुष्यता से चलने के लिए मनुषयीय नियम, कानून ,आचार संहिताएं,विधान, संविधान और न जाने कितनी पटरियाँ बिछाईं ,ताकि उसके जीवन की रेलगाड़ी उस पर सुचारु और सुव्यवस्थित रूप से चल सके।किंतु विडम्बना की बात है कि यदि किसी ने उनका उल्लंघन किया अथवा उनकी मर्यादा भंग करने का प्रयास किया तो उनमें सबसे प्रथम भी मनुष्य ही था।इसका कारण भी यही था कि उनका कर्ता अथवा संविधान- निर्माता भी मनुष्य ही था। अब उनको तोड़ने वाला भी स्वयं मनुष्य ही होगा ,कोई तीतर ,बटेर, हाथी ,घोड़ा ,बंदर या ऊदबिलाव तो हो नहीं सकता। अतीत काल से अद्यतन नियम -भंग की इस परंपरा को बखूबी निभाता चला आ रहा है। जितना अधिक टेढ़ापन उसमें आता गया ,नियम -कानून भी उतने ही 'जलेबी -जलेबी' होते गए। आज के इस लेख का मुख्य विषय मनुष्य की परस्पर वार्ता से संबंधित है।यों तो अन्य प्राणी भी अपनी -अपनी भाषा में परस्पर बातचीत करते हैं। उसे हम मानव भले ही समझ पाएँ अथवा नहीं; किन्तु मनुष्य की परस्पर संवादशीलता की बात ही कुछ और है।

 मनुष्य ने परस्पर बातचीत करने के लिए भी कुछ विशेष नियम -निर्धारण किया है।जैसे 1.जब दो लोग परस्पर वार्ता कर रहे हों तो उन्हें इस प्रकार बोलना चाहिए कि सामने वाला भी उसे ध्यान से सुने।2.बातचीत करते समय उनके संवाद इतने लंबे न हो जाएं कि सामने वाले को ये प्रतीक्षा करनी पड़े कि यह चुप हो जाए तो वह अपनी कहे। 3.बातचीत के विचार और भाव ऐसे हों कि उसकी भाषा के शब्द विन्यास को अगला व्यक्ति समझ भी सके।उनमें दुर्बोधता और दुरूहता नहीं होनी चाहिए।4.वार्ता - शैली ऐसी हो कि श्रोता को ऐसा न लगे कि भाषण हो रहा है और उसे तो मात्र सुनना भर है ; कहना कुछ भी नहीं है।5.बातचीत में अश्लील और भद्दी भाषा का प्रयोग नहीं हो।जिससे किसी अन्य श्रोता को असहजता का अनुभव हो। 6.बातचीत का स्वर ऐसा रहे कि किसी को असुविधा न हो। किसी को यह कहकर रोकना - टोकना न पड़े कि धीरे बोलो।बहुत से लोगों का सामान्य स्वर भी ऐसा होता है ,जैसे वे बातचीत नहीं कर रहे ,बल्कि लड़ रहे हैं।आदि आदि। 

 समाज में अधिसंख्य ऐसे लोग हैं कि उन्हें केवल अपनी बात कहने भर से मतलब होता है । वे सामने वाले की सुनना नहीं चाहते।कभी- कभी ऐसा भी देखा जाता है कि श्रोता कुछ कहना भी चाहे तो वक्ता बोलने का अवसर ही नहीं देता और प्रायः यही कहता रहता है :'पहले मेरी सुनो। पहले मेरी सुनो।' कुछ लोगों का तो यह तकिया कलाम ही बन जाता है :'पहले मेरी सुनो।' अथवा 'मेरी सुनो।' उसकी मेरी सुनो ,मेरी सुनो की धुन से अगला व्यक्ति बोर तो होता ही है , परेशान भी हो जाता है और लगने लगता है कि यह कब अपना भाषण बंद करे और इसकी 'मेरी सुनो' से पिंड छूटे।

  'मेरी सुनो' की यह लाइलाज बीमारी प्रायः नेताओं में पाई जाती है।वे किसी की सुनना ही नहीं चाहते ।बस अपनी कही और चलते बने।इसका भी विशेष कारण यह है कि वे अपने अहंकार में किसी को भी अपने से योग्य नहीं समझते।वे अपने को सर्वज्ञानी और भगवान ही समझ लेते हैं। यही कारण है कि एक निरक्षर या मात्र साक्षर नेता आई० ए० एस० या आई० पी० एस० को भी महत्व न देकर उसे डाँटता फटकारता है।अपमानित करता है। आम जन को तो वह घास कूड़ा ही मानता है। अपना स्थान सर्वोपरि मानता है। ऐसा व्यक्ति 'मेरी सुनो' का जिंदा प्रमाण है। नेता को चुनना जनता जनार्दन की एक मजबूरी है। न चाहते हुए भी उसकी सुनना, वादों को सच मानना ,आश्वासनों में विश्वास कर लेना,उसे अपनी वेदना सुनाना, यहाँ तक कि उसका भक्त हो जाना :ये सब उसकी अनिवार्यताओं में शामिल हो गईं बातें हैं।

 'मेरी सुनो' की इस लाइलाज मर्ज के मूल में वक्ता का अहं ही प्रमुख है। सुनने के नाम पर तो वह बहरा ही है। यदि आपने ऐसे लोगों को नहीं देखा सुना हो ,तो अब आगे से देखने का प्रयास करना कि 'मेरी सुनो' का कितना व्यापक प्रभाव समाज में व्याप्त है। यदि ज्यादा दूर न जा सको तो अपने ही घर की चार दीवारों और छत के नीचे देख लेना कि कहीं अपनी अर्धांगिनी में भी तो इस रोग के वायरस नहीं लगे ? जहाँ तक इस लेखक का अनुमान है सौ में से 70 घरों में यह वायरस अवश्य ही मिल जाएगा। जहाँ पर पतिदेव को केवल 'मेरी सुनो' के अनुनाद से गुंजायित रहना है। केवल सुनना है ,कहना या कह पाना या न कह पाने की सामर्थ्य होना ही इसके मूल में है। इनके आगे संवाद - योजना के सब नियम फीकी जलेबियाँ हैं ,जिन्हें चासनी में निमग्न किया जाना असम्भव है।'मेरी सुनो' का सर्वाधिक आक्रामक रूप यहीं देखने को मिल सकता है।यदि पत्नी अधिक पढ़ी- लिखी और करवा चौथी पति अल्प शिक्षित हुआ तो यही समझ लीजिए कि एक तो करेला फिर नीम पर चढ़ बैठा ! अब चढ़ बैठा तो चढ़ ही बैठा है ।उसे तो 'मेरी सुनो' से आजीवन कोई छुटकारा ही नहीं है। 

 ●शुभमस्तु ! 


11.11.2023◆ 9.15 आ०मा० 


 ●●●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...