506/2023
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● ©लेखक
● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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आयु में बड़ा होकर भी किसी को अपनी बाल्यावस्था और अतीत को भुला पाना सम्भव नहीं है।इसलिए मेरे बीते हुए सात दशक कल की सी बात लगते हैं।आठवें दशक की दहलीज पर दो सीढ़ियाँ चढ़ जाने पर बचपन के बीते हुए दिन और उसकी खट्टी -मीठी यादें भी आना और उनका चुभलाना भी कम आनन्ददायक नहीं लगता ।वयस बढ़ने पर कोई कुछ भी बन जाए किन्तु बचपन तो बचपन ही होता है। एक कोरा कागज ;जिस पर समय की लेखनी जो कुछ भी लिख डाले, लिख जाता है। लिख ही नहीं जाता , अमिट हो जाता है।ऐसे ही कुछ अमिट लिपि मेरे बाल्य पटल के पन्नों पर भी लिखी हुई है।जो कहीं- कहीं बहुत स्प्ष्ट है, तो कहीं-कहीं धुँधली भी पड़ चुकी है। अब इसमें कोई क्या करे ,समय को जो स्वीकार है ;वही तो रहेगा,बचेगा।
उस समय मेरी वयस यही कोई सात-आठ -नौ वर्ष की रही होगी।गाँव के अन्य बच्चों के साथ मैं भी उस समय के प्रचलित खेल खेलने में मग्न रहता था।गेंद बल्ला, गिल्ली डंडा,अपने विशाल गूलर के पेड़ पर हरियल डंडा,कंचा -गोली जैसे बहुत सारे खेल मेरे प्रिय खेल थे।क्वार के महीने में टेसू का खेल भी साथियों के साथ रुचि पूर्वक खेला करता था।सावन में लंबी कूद और ऊँची कूद कूदना कभी नहीं छोड़ा। कबड्डी तो ऐसा प्रिय खेल रहा कि कभी छोड़ा ही नहीं गया, विशेषतः वर्षा के बाद के शरदकाल या ग्रीष्म ऋतु में कबड्डी की धूम मची रहती थी।गाँव और खेतों को जोड़ने वाले वाले दगरों(चकरोडों) में ही कबड्डी और पैंता(लंबी कूद) के लिए सदा खुले रहते थे।रक्षाबंधन और जन्माष्टमी के अवसर पर इनके विशेष प्रतियोगी आयोजन भी होते थे।जिनमें गाँव तथा दूरस्थ गाँवों के खिलाड़ी और शौकीन लोग एकत्रित होकर उसे मेले जैसा रूप प्रदान करते थे।इनाम भी बाँटे जाते थे।
बचपन की संगति कैसी है?यह अपने ऊपर निर्भर नहीं है। वह अच्छी भी हो सकती है और नहीं भी।इसे एक संयोग ही कहा जा सकता है।मेरे भी अपने यार- दोस्त थे। जिनके साथ -साथ रोज खेलते -कूदते ,लड़ते -झगड़ते ,फिर से एक हो लेते।और लड़ -भिड़कर जाते भी भला कहाँ!एक होना समय की माँग थी। या कहिए कि हमारी विवशता थी। और नए मित्र लाते भी कहाँ से ! इसलिए आज लड़ते तो सुबह फिर एक हो जाते। मानो कल कुछ हुआ ही न हो ! सब कुछ पूर्ववत।
कुछ अच्छी या बुरी आदतों का पदार्पण भी प्रायः बचपन में ही हो जाता है। क्योंकि बचपन ही तो हमारे भावी जीवन की कार्यशाला है।वे आदतें जीवन को प्रगति के शिखर पर भी पहुँचा सकती हैं और गहरे खड्ड में भी पतित कर सकती हैं। इसीलिए बचपन की संगति (सुसंगति अथवा कुसंगति) शेष जीवन की आधारशिला है। मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ कि यदि उसी समय सचेत नहीं हुआ होता तो आज जो मेरी अवस्था है,स्वम्भवत: वह कुछ और ही विद्रूप में होती।
गाँव में मेरे पूज्य बाबा जी की एक बड़ी -सी कच्ची चौपाल थी। जिसकी दीवालें और फर्श कच्चे थे और छत में रेल पटरी के गर्डरों पर पत्थर की पटिया पड़ी हुई थी। लगभग तीस गुणा बीस फ़ीट के बड़े कक्ष के सामने एक बड़ा सा चबूतरा था। उसके एक कौने पर एक नीम का विशाल पेड़ भी था। चौपाल पर गाँव और परिवार के लोगों की बैठकबाजी होती रहती थी। हम बच्चे भी खेलते कूदते रहते।
एक दिन की बात है कि कहीं से बीड़ी का एक बंडल हाथ पड़ गया और साथ में एक दियासलाई भी। फिर क्या था हम दो बच्चों ने एक बीड़ी निकाली और सुलगा ली और ज्यों ही एक सुट्टा मारा कि खाँसते -खाँसते वह दिन कि आज का दिन। वह तो अच्छा था कि हमारी इस हरकत को देखने वाला कोई बड़ा व्यक्ति वहाँ मौजूद नहीं था , वरना बहुत डाँट पड़ती।लेकिन सबक मिल चुका था।तब से अब तक बीड़ी देवी के दर्शन करते ही वह दिन याद आ जाता है और देव दर्शन हो जाते हैं। किसी दुर्व्यसन को पढ़ने का यह पहला पाठ था ,जो अंतिम पाठ भी सिद्ध हुआ। ये ही हम बच्चों के बनने -बिगड़ने के दिन थे;जब जिस ओर पेड़ की टहनी मुड़ जाती ,वैसी की वैसी ही बनकर कोई और ही रूप देती।तभी तो कहा जाता है कि बचपन जीवन की वह नींव है ,जिस पर भावी जीवन का विशाल भवन खड़ा होता है।आज मैं बच्चा तो नहीं हूँ, किन्तु बचपन की वे अनेक स्मृतियाँ भी मेरे यह जीर्ण - शीर्ण होते देह और शक्तिवन्त होते जीवन की सुदृढ़ आधारशिलाएँ हैं।
● शुभमस्तु !
26.1.12023●11.00 आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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