499/2023
[झील,माली,माया,संयम,प्रसाद]
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●© शब्दकार
● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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● सब में एक ●
नयनों की दो झील में, ढूँढ़ रहा हूँ प्यार।
जितना डूबा मैं वहाँ, पाया शुष्क दयार।।
बादल ओढ़े झील पर,टहल रहा था मौन।
पूछा तो कहने लगा, बोलो तुम हो कौन।।
पतझड़ के नव रूप में, आया विमल वसंत।
माली निर्णय दो हमें,किसे कहें ऋतु - कंत।।
सुमनों की बगिया सजी, माली रहा सँवार।
चैत्र और वैशाख की, अद्भुत अलग बहार।।
माया हरि के प्रेम का,कभी न होता साथ।
लगन लगी हरि -भक्ति में,सोना रहा न हाथ।।
माया तो मरती नहीं, मरती है बस देह।
माया - तृष्णा बढ़ रही, मिली देह हर खेह।।
संयम से कर साधना, पाने को निज लक्ष्य।
शयन जागरण साध ले,खा मत भक्ष्य-अभक्ष्य।।
ऋषि-मुनि संयम साधते ,करते पालन धर्म।
चमकें रवि के तेज-से, समझ साधना - मर्म।।
गुरु - प्रसाद जिसको मिला,प्राप्त किया सत तत्त्व।
निखरा नर भू लोक में,कनक सदृश व्यक्तित्व।।
करना मत अवहेलना, मिलता अगर प्रसाद।
मंदिर, देवी, देवता, श्रुतियों में अनुनाद।।
● एक में सब ●
मन की गहरी झील में,माली संयम एक।
माया तो ठगती फिरे, ले प्रसाद की टेक।।
●शुभमस्तु !
22.11.2023● 9.45आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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