हाँ , हाँ मैं वामा हूँ। तुम पुरुषों ने मुझे "वामा" अर्थात वाम है जो ,वही वामा ही तो मैं हूँ। शब्दकोशकारों ने भी मुझे टेढ़ी, कुटिल, दुष्ट , बुरी, प्रतिकूल ,विरुद्ध के अर्थों में व्याख्यायित किया है।इन विविध नामों से मुझे शृंगारित, सुशोभित किया है। तो इसमें बुरा क्या है। मैं अपनी रचना , प्रकृति , स्वभाव , चाल-चलन , आचार -विचार , व्यवहार, शृंगार, सोच , चिंतन -मनन, चलन-फिरन , तन , मन सभी तरह से सर्वथा कुटिल , वक्र , टेढ़ी या विपरीत ही तो हूँ।
किसी भी रूप में यदि विश्लेषित करके देखा जाये तो सबसे पहले मेरा बाहरी रूप ,आकार - प्रकार , देह- संगठन ही आता है , क्योंकि सबसे पहले तुम मुझे पाते हो कि प्रकृति ने ऊपर से नीचे तक मुझे टेढ़ा ही बनाया है, जिसे तुम अपने स्वार्थ में सुंदर , कोमल - कांत और कमनीय (कामना के योग्य, चाहने योग्य) कहते हो । जिसकी प्रशंसा करते - करते नहीं अघाते ! फूले नहीं समाते। मुझे रिझाते , मूर्ख बनाते - बनाते,नहीं थकते ।मेरे शरीर का प्रत्येक बाह्य रूप न जाने क्यों प्रकृति की निर्मात्री - देवी को टेढ़ा बनाना ही श्रेयस्कर लगा , मेरी कुटिल और वक्र बुद्धि ही समझदारी से परे है। यदि मैं स्वयं भी दर्पण के समक्ष देखने का प्रयास करती हूँ ,तो मुझे उस निर्माता प्रजापति ब्रह्मा या निर्मात्री देवी की सोच पर आश्चर्य होता है , कि अंततः क्या सोचकर मुझे पुरुष से इतना भिन्न और विपरीत क्यों रच दिया। अब आप सोचें कि मेरे इस सृजन में मेरा अपना तो कोई हाथ नहीं है। फिर भी मैं आप पुरुष वर्ग को बहुत - बहुत धन्यवाद ज्ञापित करना अपना दायित्व समझती हूँ, कि इतनी वाम और टेढ़ी -मेढ़ी होने के बावजूद मुझे काम्या, सौंदर्य की देवी , कामिनी, भार्या , वामांगी, रमणी , आदि सुंदर संज्ञाओं से सुशोभित किया गया है । चाहे आपने अपने स्वार्थ में ही ऐसा कहा हो । पर यह भी सौ फीसद सत्य है कि प्रशंसा किसे प्रिय नहीं होती,भले ही वह झूठी हो। और इसमें भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि प्रायः सराहना और प्रशंसा झूठी ही होती है। एक पक्षीय ही होती है। जिसे सुनकर प्रत्येक वामा और अवाम (जो वाम नहीं है ,टेढ़ा नहीं है) गदगद हो जाता है। मेरे प्रति एक विशेष हाव,भाव और चाव से भर -भर जाता है।
अब बात आती है मेरी चाल -ढाल , हाल -चाल आदि पर । तो वहाँ भी मैं अपने भाव, स्वभाव , सद्भाव , दुर्भाव में भी अपने में एक ही हूँ। पुरुष वर्ग से विपरीत और कुटिल ही। मेरे सोचने का नज़रिया और नज़र भी मौलिक ही है। जब मेरा शरीर ही वाम या टेढ़ा या वक्रिम है तो चाल अर्थात चलन क्यों टेढ़ा नहीं होगा? यदि कोई पुरुष साड़ी -ब्लाउज़ पहनकर सड़क पर जा रहा हो तो उसकी चाल चलने के ढंग से ही दूर औऱ आगे पीछे हर कोण से पता चल जाएगा कि जा नहीं रही , जा रहा है। जबकि एक वामा जब सड़क पर चलती है तो उसके कूल्हे , हाथ , पाँव एक विशेष लय औऱ तरन्नुम में ताल देते हुए लगते हैं। कमर को लचकाती, मटकाती , हाथों को आगे -पीछे झटकारती ,फटकारती एक विशेष वक्रिम लय-ताल की लहरियों में संगीत - सा भरती हुई मार्ग तय करती है। यह मैं नहीं कहती। आप सब कहते हो। मैं कितना भी बदल कर चलने की कोशिश करूँ , पर सब व्यर्थ। सब अकारथ। अपनी प्रकृति के विरुद्ध भी भला कोई गया है? अथवा जा सकता है? कदापि नहीं।यदि मेरी चाल -ढाल में थोड़ा -सा भी सीधा- पन आ जाए तब तो और भी गज़ब हो जाता है। मुझे तीसरे लिंग की संज्ञा दे दी जाती है, फिर तो मैं न वामा रहती हूँ, और न अवाम(पुरुष)ही। इससे तो अच्छा है , मैं वामा ही भली। अपनी सहज प्रकृति से तो नहीं बदली।
जब मैं सोच -विचार के विषय में सोचती हूँ तो भी आप पुरुषों से अपने को भिन्न ही पाती हूँ। मेरे सोचने का तरीका भी अपना है। मुझे यों ही वामा करार नहीं दिया गया, मेरी सोच - दानी भी वाम ही है। इतना विपरीत ,वक्र , वाम , टेढ़ा और कुटिल रूप होने के बावजूद मैं तुम पुरुषों की वामांगी हूँ। अर्धांगिनी हूँ। गृहिणी हूँ। गृहलक्ष्मी हूँ। आपके कंधे से कंधे मिलाकर चल पाती हूँ। तुम्हारी पूरक हूँ। टेढ़े औऱ सीधे का यह विचित्रता पूर्ण संग किसी आश्चर्य से कम नहीं है। विपरीतता का यह संगम संसार के संचालन की एक अजूबी धरोहर है।मुझे आप अवाम का आभारी होना चाहिए कि आपने मुझे अपने हृदय के सिंहासन पर विराजमान ही नहीं किया , वरन मानव जीवन की स्वामिनी ही बना दिया है। वैसे मैं वामा थी , वामा हूँ और वामा ही रहूँगी ।मेरा वामपन जब विधाता को स्वीकार है, तो पुरुष को क्यों सहज स्वीकार नहीं होगा?
💐शुभमस्तु !
✍लेखक© 💃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
20.12.2019◆11.40अपराह्न।
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