छोड़ा जिसने धर्म निज ,
गर्दभ रहा न अश्व।
चमगादड़ बन लटकता ,
शाख पेड़ की ह्रस्व।।1।।
घोड़े से गर्दभ हुआ,
त्याग जन्म का धर्म।
जैसा तेरा धर्म हो ,
वैसे तेरे कर्म।।2।।
ईश्वर ने जिस धर्म में ,
हमें किया उत्पन्न।
उसके प्रति निष्ठा रखें,
सदा सुखी सम्पन्न।।3।।
संस्कार जिस धर्म के,
मिले देह के रक्त।
उसके ही अनुरूप हों,
बनें उसी के भक्त ।।4।।
भूल गया पितु बीज को,
औ' जननी का रक्त।
स्वार्थ हेतु पर धर्म में,
होता जड़ अनुरक्त।।5।।
बीज रक्त जिस देह के ,
उनका है अपमान।
लादी निपट कृतघ्नता ,
मिटी धर्म की शान।।6।।
किसी और के बाप को ,
कहता अपना बाप।
पूछा है क्या जनक से,
उसका उर - संताप।।7।।
धर्म हेतु बलिदान हो ,
गया पूर्ण परिवार।
धन्य गुरू गोविंद जी,
सिंह , नहीं थे स्यार।।8।।
अपने प्यारे धर्म हित,
किया प्राण बलिदान।
जोरावर औ' फतह की,
अमर रहेगी शान।।9।।
अपने - अपने धर्म का ,
मिलता स्वतः सकार।
फिर विधर्म का क्यों धरें,
तन-मन बसा नकार।।10।।
पशु - पच्छी का धर्म है ,
भोजन और निकास।
पर मानव को धर्म हित,
करना आत्म -विकास।।11।।
💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
25.12.2019●8.00अपराह्न।
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