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अशान्ति की
साधना में निरत
मानव ,
चाहता है
शान्ति मिल जाए,
भ्रान्तिमय जीवन
जी रहा
अनवरत,
नहीं कोई
कहीं भी
शान्ति का सत्पथ,
खड़ा है
पार्थ का रथ,
रचाने को
महाभारत,
भला फिर
शान्ति क्यों ?
कैसे??
जीवात्मा ने
शरीर छोड़ा ,
सम्बन्धियों का
मोह तोड़ा,
परम आत्मा का
नेह जोड़ा,
- कहा सबने
यही बस
एकस्वर से,
मिले
दिवंगत आत्मा को
शांति ,
शांति,
शांति,
अंतिम परम लक्ष्य ही
यह है
मिले उनको
परम शान्ति!
किन्तु क्या
किसी मानव ने
किया उस ओर
अपने
लक्ष्य पथ की ओर
अपना मुँह,
नयन की दृष्टि,
बढ़ा ,
नए सृजन पथ पर,
होनी ही थी
नव सृष्टि।
जहाँ है शांति
नहीं है
वहाँ कोई भी भ्रांति,
किन्तु
मकड़जाल में
उलझता
सुलझता ही रहा,
मानवत्व से मानव
इतर निष्क्रमित
होता ही रहा।
अपने ही लिए
अशांति के शल्य
स्वयं बोता रहा,
रोता रहा ,
सोता रहा,
शांति को
खोता रहा,
अपने ही करों
तरणी भँवर में
डुबोता रहा,
व्यग्र मानस
मिथ्या स्वप्न
सँजोता रहा,
भांडार में धन के
शांति को
रोता रहा,
कर्म में नहीं
घृत -समिधा के
हवन में
होम होता रहा,
बस यहीं पर
शांति का
स्वाहा होता रहा।।
💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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