सोमवार, 9 दिसंबर 2019

ग़ज़ल


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धुआँ -   ए-    पराली पिए जा रहा हूँ।
हूँ  इन्सां,पशु - सा जिये   जा रहा हूँ।।

न  डर है  किसी को तबाही का अपनी,
इसी    ग़म   का बोझा लिए जा रहा हूँ।

मुझे   देश   के   दुश्मनों  से घृणा  है, 
मगर कर्म   अपना  किए जा रहा हूँ।

है    कितना   दुखी  अन्नदाता बेचारा,
यही    सोच   है   पर  जिए जा रहा हूँ।

'शुभम'   कोई  क़ानून हो प्यार का भी,
यही   सोच  जन  को  दिए जा रहा  हूँ।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
⚜ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

07.12.2019◆5.45 अपराह्न

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