परन्तु अगर कहीं धोखा है , तो वह आदमी का चेहरा है।आदमी का जिस्म है। जिसमें वेश के नीचे देह , देह के नीचे लिपा - पुता छद्म मन।जाने कैसा है उसका कन -कन। ऐसा ही है यहाँ जन - जन। गेरुआ , सफेदपोश , सूटबूट , साधु ,महात्मा ,सन्यासी , नेता ,मंत्री ,अधिकारी: सभीके के नीचे भरी है न जाने कितनी ऐयासी ! वेश से आदमी को जानना पहचानना बहुत दुर्लभ और शोध का विषय है।इसके मन की तहों की शोध करते -करते जिंदगी गुज़र जाएगी , पर केले के पात के नीचे पात , उसके नीचे फिर पात, पुनः उसके भी नीचे पात ,लेकिन उन पातों की पांत की अनंत खोज के बाद भी कुछ भी नहीं हाथ! आदमी की क्या बिसात कि आदमी के भीतरी पटलों के धागे उधेड़ सके। कितने ही कवि , शायर , कथाकार , लेखक अपने साहित्य - सृजन के माध्यम से मोटी - मोटी पोथियाँ लिखकर रख गए हैं , निरन्तर लिख रहे हैं और लिखते रहेंगे ,परन्तु आदमी के चरित्र के पन्ने रहस्य के अँधेरे में ही दुबके रहेंगे। माता कैकेयी को महाप्रभु राम जी ही नहीं जान सके तो भला आदि कवि वाल्मीकि या गोस्वामी तुलसीदास जी ही कैसे जान पाएँगे ? जितना उन्होंने जाना , उतना ही लिख पाए। फिर भी उनके चरित्र के पन्ने पूरी तरह नहीं खुल पाए।
आदमी की गोरी खाल के नीचे छिपा हुआ भेड़िया किसने देखा? मत जाइए इसकी शक्ल-ओ -सूरत पर। मत जाइए इसके रंग पर। मत जाइए इसके वेश पर। बढ़े हुए लंबे केश पर। सत्रह हजार सतहों के नीचे छिपा हुआ आदमी का चरित्र कोई नहीं जानता । यदि जान गए होते तो आगे के कवि , लेखक , कथाकर क्या घास छीलते? आगे क्या लिखते ? साहित्य के सृजन का दी एंड कब का हो गया होता! कहा जाता है कि 'त्रिया चरित्रम पुरुषस्य भाग्यम दैवो न जानाति कुतो मनुष्य:।' मेरे अनुसार आज के क्या अतीत और भविष्यत के संदर्भ में भी यह उक्ति सत्य प्रतीत नहीं होती। जबकि मेरे मतानुसार इसे होना चाहिए: "मानवस्य चरित्रं भाग्यम च , देवो न जानाति कुतो मनुष्य: ।
पंच मकार (मद्य, माँस ,मदिरा , मुद्रा और मैथुन ) तंत्र -साधना के प्रमुख अंग हैं , जिनके बिना किसी भी जीव का जीवन चल नहीं सकता। मानवीय जीवन में विवेक तत्व उसे उसे अन्य जीवों से भिन्न करता है। जीवन के उत्पादन , संचालन और प्रतिपादन के लिए पंच मकारों के बिना कुछ भी नहीं है , किन्तु पंचम मकार मैथुन का अविवेकपूर्ण गहन संपादन उसे पशु की श्रेणी में ले जाकर खड़ा कर देता है। इसीलिए कहा है आदमी पहले पशु है, बाद में इंसान। उसकी यह पाशविकता कब कितनी उग्र होकर उसे पशु बना देगी , कहा नहीं जा सकता। कब वह आदमी से सुअर , कुत्ता , गधा, भैंस , भैंसा, आदि बन जाएगा , कुछ भी पता नहीं है। भद्रता की खाल और आदमीपन का मुखौटा लगाए हुए उसकी सुअरवृत्ति जाग जाएगी , यह सब रहस्यमय है। सभ्यता के रंगीन वस्त्रों के नीचे वह पशु ही है। विवेक का प्रकाश ही उसे आदमी बना सकता है।
आइए उसी आदमी के अदमीपन के खोखले चरित्र की पड़ताल कर लें। पर क्या लाभ ? यहाँ कोई भी दूध का धुला नहीं है। 'सोना कसे सें , मानुष बसे सें'! अब भला बताइए कि किस -किस के साथ आप बसेंगे या उससे व्यवहार करेंगे! किसी से कुछ पल का सम्बंध है तो किसी से जीवन भर का ! एक जीवन में एक पति अपनी पत्नी को नहीं जान - समझ पाता। और न पत्नी ही पति को जान - समझ पाती है। जो जान - समझ लेते हैं , वे भाग्यशाली हैं, भाग्यशाली ही नहीं सौभाग्यशाली हैं। वरना समझौता करके , चुप्पी साधकर , मन मारकर जीते रहते हैं। जीते चले जाते हैं। कहीं - कहीं तो यह भी चरितार्थ होता हुआ दिखता है : 'बाहर मियाँ थानेदार, घर में बीवी झाड़ूमार'। जितना अदमी के अंदर घुसेंगे ,उतना ही अंदर अँधेरा बढ़ता जाएगा। फिर टॉर्च लेकर ढूँढते रहिए कि वह कैसा/ कैसी है या कैसा था/ कैसी थी?
गूढ़ पहेली आदमी, राज न जाना जाय।
मत समझो वह श्रेष्ठ है, ऊपर से मुस्काय।।
भीतर से नर भेड़िया, बाहर से ख़रगोश।
अजब पहेली नारियाँ, मुस्कानों में रोष।।
💐शुभमस्तु !
✍ लेखक © 🚦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
06.12.2019 ◆6.15 अपराह्.
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