धर्म के लिए लोग लड़ते हैं, झगड़ते हैं, मरते हैं मारते हैं ,कटते हैं,काटते हैं, मिटते हैं , मिटाते हैं। दुनिया में जितना नर संहार, खून - खराबा धर्म के कारण होता है , हुआ है अथवा हो रहा है, उतना तो बड़े - बड़े महायुद्धों में भी नहीं हुआ। विडम्बना यह है कि प्रत्येक व्यक्ति धर्म को मानने के लिए स्वतंत्र है।धर्म को किसी से जबरन मनवाया नहीं जा सकता। हर व्यक्ति प्राकृत रूप से किसी न किसी धर्म में उत्पन्न होता है । और यहाँ पर मजे की बात यह भी है कि किसी भी जन्म को लेने में उसका अपना कोई भी योगदान नहीं है। वह अपनी इच्छा से किसी धर्म विशेष में जन्म नहीं लेता।जन्म की योनि और धर्म विशेष में आना उसकी व्यक्तिगत क्षमता से बाहर है। फिर भी उस धर्म के लिए इतनी मारकाट , हिंसा , अत्याचार क्यों ?
मानव -जीवन में धर्मं की ही तरह कर्म की भी महती भूमिका है , जिसकी ओर वह कोई विशेष महत्व नहीं देता। यदि विचार करके देखा जाय तो कर्म ही जीव का बीज है। बीज ही अंकुरित होकर नवयोनि का कारण बनता है। धर्म तो एक ऐसा आवरण है ,जिसे इच्छानुसार बदला भी जा सकता है। वह कर्म को नजरअंदाज करता है और धर्म के पीछे लट्ठ लेकर पड़ जाता है।
संसार में जितने भी लोग हैं , उनमें सच्चे धार्मिक लोगों की संख्या नगण्य है , जबकि 90 प्रतिशत से अधिक लोग धर्मांध अर्थात धर्म के अंधे, धर्म के नाम पर अंधे ही हैं। अंधे व्यक्ति की आँखों पर पट्टी बाँधने की भी कोई अवश्यकता नहीं है। वह अंधा है ही। अंधी आँखों पर पट्टी क्या बाँधना ? वह तो बस चल पड़ता है अन्य अंधों के पीछे -पीछे। अंधा आदमी केवल अनुगमन करता है। अपने विवेक का प्रयोग नहीं कर सकता। परम्परा और रूढ़ियों की जंजीरों में बँधा हुआ इंसान तो उस कुत्ते की तरह है ,जिसे मालिक की इच्छा पर ही भोंकना, चलना, फिरना , आना , जाना , नित्य कर्म करना होता है। वह पराधीन होता है। उसका विवेक शून्य हो जाता है। उसकी विवेक की ग्रीवा में पड़ी हुई अदृश्य जंजीर उसे कुछ भी नहीं करने देतीं।
प्रत्येक धर्म में मानव की अंधता का लाभ उठाने वाले तथाकथित धर्माधीश (पंडे , पुजारी , महंत ,मौलवी , मठाधीश , तिलक माला धारी)तंत्र , मंत्र ,यंत्र के नाम पर आम अंधे अनुयायी का शोषण करते हैं । बड़े -बड़े आश्रमों तक कुछ दिन विलासिता और धन के मद में मुटियाने के बाद उनका "शुभस्थान" किसी कारागार में सलाखों के पीछे ही होता है। पहले ही कहा जा चुका है , कि कर्म बीज है , जो जैसा बोता है , वैसी ही फ़सल काटता है। खेती कर्म की होती है , धर्म की नहीं। बड़े -बड़े धर्मावतार कहे जाने वाले स्वयम्भू भगवानों का हस्र दुनिया के सामने है। इसके लिए कोई प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है।
कर्म का बीज जब फलता है , तो नीम के पेड़ पर आम का मधुर फल नहीं लग सकता। वह कड़बी निबौली ही उगलेगा। इसलिए सुकर्म का फल सुंदर है और दुष्कर्म का असुंदर , वीभत्स , निंदनीय , घातक , कटु और नरक की आग में झोंकने वाला ही है। कर्म कभी धोखा नहीं देते । जब कर्म का बीज परिपक्व हो जाता है , तभी अंकुरित होकर पेड़ बनता है औऱ पुनः फलता है। यहाँ कोई धोखाधड़ी नहीं है। स्वकर्म की ओर ध्यान से अच्छे और पवित्र बीज का निर्माण होता है।
धर्म की धुंध में अपने को धोखा देने से कोई लाभ नहीं है। क्या फ़र्क पड़ता है कि आप हिन्दू हैं, मुसलमान हैं, सिख हैं , पारसी हैं ,ईसाई हैं या किसी औऱ धर्म के अनुयायी हैं। यदि कर्म खराब हैं तो कहीं कोई क्षमा नहीं , कोई भी परिष्कार नहीं । बुरा कर्म करके आप लौट भी तो नहीं सकते। उसके फल (मधुर या कड़वे ) खाने से बचने का कहीं कोई उपाय नहीं। कोई भी भगवान , देवी , देवता , इष्ट , गुरु आपको आपकी करनी से बचा नहीं सकते। चाहे मंदिर , मस्ज़िद , गुरुद्वारा , चर्च - कहीं भी चले जाइए , कहीं कोई समाधान नहीं है , नहीं है , नहीं है। जो किया, वही जिया जायेगा। करनी का फ़ल एक दिन अवश्य सामने आएगा।पितामह भीष्म को भी सौ जन्म पहले एक मृत सर्प को काँटों पर डालने के कारण सौ जन्म के बाद महाभारत के महासंग्राम में शरशैया मिली । कोई भी, कभी भी , कहीं भी किसी भी तरह कर्म के फल से बच नहीं सका है। न बच सकेगा। यही शाश्वत सिद्धान्त है। अकाट्य सिद्धांत है। समय आने पर वह अवश्य फलेगा। चाहे हजारों लाखों करोड़ों वर्ष ,युग औऱ जन्म व्यतीत हो जायें। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है: कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।💐शुभमस्तु !
✍लेखक © ⛳ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
13.12.2019◆6.35 अपराह्न।
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