भीड़!
भीड़!!
भीड़!!!
जिसका नहीं है
कोई नीड़,
न चरित्र ,
न व्यक्तित्व,
न दायित्व,
कहलाती है
वह भीड़।
जब व्यक्ति नहीं
भीड़ में!
तो व्यक्तित्व
क्यों हो ?
जब चारुता नहीं
तो चरित्र
क्यों हो ?
देयता नहीं
तो दायित्व
क्यों हो?
आया भीड़ में से
एक बेतहासा दौड़ता
पत्थर ,
कोई कहेगा
कि मैंने उछाला है !
कानून के वक्ष से
लोहू
मैंने निकाला है !
कोई कहेगा ?
ले सकेगा
कोई दायित्व?
छाती फैलाकर !
हर ओर से
आती है
एक ही आवाज ,।
मैंने नहीं !
मैंने नहीं !!
मैंने भी नहीं !!!
परन्तु एक
बेजान पत्थर
तो उछला?
किसी के वक्ष से
रक्त तो निकला?
क्या यही
चरित्र है?
यहाँ शून्य ही
व्यक्तित्व है,
भीड़ तो
भीड़ है ,
अविवेकी और
मूढ़ है ,
अंधी बहरी
बरगलावे में
बाँध कर पट्टी
फेंकती पत्थर,
फिर क्यों हो
किसी का चरित्तर ?
सत्य से
सर्वथा दूर ,
बहुत ही दूर ,
पूर्णतः क्रूर ,
मदान्धता में चूर !
न कहीं शूरता,
न कोई शूर!
'चारुता का इत्र'
'चरित्र ' यहाँ कहाँ?
ये भीड़ है,
मानवता के हृदय की
दारुण पीर है !
कायरता में डूबती
तकदीर है,
स्वदेश की छाती में
घौंपी गई
शमशीर है।
💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🛤 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
24.12.2019◆11.00पूर्वाह्न।
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