शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

गणतंत्र की तस्वीर का दूसरा रुख [अतुकान्तिका]




दूरदर्शन वाले 
दूरदर्शन के
कार्यक्रमों का
सर्वेक्षण कराते हैं,
उनकी तस्वीर का
दूसरा रुख कैसा है 
इसकी जाँच भी
कराते हैं,
वहाँ नाटक के 
सच में ही
हकीकत का सच है,
यहाँ पर 
सच के नाटक में
सब सच ही सच है।

मैं भी ऐसा ही करता हूँ,
सत्तर वर्ष तो 
ऐसे ही बीत गए,
इकहत्तरवें में 
तस्वीर का
 दूसरा रुख देखता हूँ।

चल पड़ा वह 
26 जनवरी की अल सुबह
पौने आठ बजे घर से,
सोचता हुआ जा रहा था
एक गली में
कि ठोकर लगी पत्थर से,
आने लगे चक्कर - से।

तभी पड़ी मेरी नज़र उधर,
गणतंत्र चक्कर 
खाया था जिधर,
मैंने  सहज ही कहा-
"भाई साहब ! 
चोट तो नहीं लगी,"
वह बोला -
"सत्तर साल से चोटें ही
तो लग रही हैं,
पर आज तक किसी ने नहीं पूछा 
कि कैसे हो ,
आपका बहुत- बहुत धन्यवाद!
भैया मेरी आत्मा ही
जल रही है।"

मैंने फिर पूछा -
"आपका परिचय ?
शुभ नाम ?"
वह बोला-
"परिचय ?
मेरा नाम ?
क्या करोगे जानकर !
अब तो  निकल ही पड़ा हूँ
मन में कुछ ठानकर।"

×       ×      ×      ×       ×
जब मैं कालेज में पहुँचा,
देखा मैंने  कि  वह 
खड़ा हुआ था ,
वहाँ पर जहाँ 
छात्रों का जमघट था ,
और एकटक 
तिरंगे झंडे को 
निहार रहा था,
भले - से दिखाई देते
कुछ लड़कों से घुलमिल कर
अपनापन दिखाता हुआ,
अपनी आवाज 
उभार रहा था,
कह रहा था -
"साढ़े आठ बजे से
देख रहा हूँ,
सरकारी दफ्तरों की 
इमारतों पर,
जी हाँ,
मात्र सरकारी दफ्तरों की
इमारतों पर ,
रस्म - अदायगी की
तैयारियों के टंटे,
कुछ फूल, 
कुछ डंडे ,
उन पर कुछ झंडे,
मरियल और सहमे - से,
डरते - से वहमे - से,
उनकी सलवटों को
गिन रहा हूँ,
जन गण मन की मरी हुई
भिनभिनाहट सुन रहा हूँ,
लगता है गणतंत्र की 
वर्षगाँठ नहीं ,
मातमपुर्सी  की जा रही है,
घड़ियाली आँसू 
बहा रहा है नेता
और जनता सुगबुगा रही है,
कोई कह रहा था 
एक दफ़्तर में,
यह भी कोई छुट्टी हुई
जब दफ़्तर ही आना पड़ा,
मँहगाई की तरह
फिर आ गई 26 जनवरी,
फिर से तिरंगे को लाकर
कर दिया खड़ा।"

छात्रों से बोला -
"तुम बेकार ही 
पढ़ -लिख रहे हो,
न पढ़े -लिखे होते 
तो विधान सभा का
चुनाव लड़वा देता ,
15 अगस्त 26 जनवरी 
को ही नहीं,
पाँच -पाँच पुश्तों को 
माला पहना देता,
ग्रेजुएट हो जाओगे
तो या तो करोगे मास्टरी,
या क्लर्क बन जाओगे,
तकदीर ने यदि दे दिया साथ,
तो पुलिस बनकर 
भले लोगों को 
चबाओगे  दिन - रात।
देशप्रेम यदि करना है 
तो कालेज को छोड़ो
औऱ खद्दर में घुस जाओ,
लाठी ले लो हाथ में
और
अच्छे - अच्छों को नचाओ,
कहिए  क्या
कुछ ग़लत कहता हूँ?"

एक छात्र बोला -
"आप सोलहों आना
सही फ़रमाते हैं ,
बात कहें मन की 
बुरा न मानो तो,
हम 26 जनवरी मनाने नहीं
किसी और ही 
वजह से आते हैं,
पढ़ने के लिए हम 
पढ़ते कब हैं?
यह तो मजबूरी है
कि हम पढ़ते तब हैं -
जब घर पर कुछ होता नहीं,
बाप बिना कालेज जाए
घर में घुसने देता नहीं,
कक्षा में मन लगता नहीं,
लगे भी तो कैसे ?
मैं जाता ही कब  हूँ?
न कुछ आता है,
न जाता है,
जब अध्यापक कुछ 
पूछता है 
तो मेरा 
भोला - सा मुखमंडल
कैसा  - कैसा शरमाता है !

"अरे ! वो तो इसी जाड़े में
मेरी शादी तय हो जाएगी,
इसी पढ़ाई के ही बहाने तो,
कुछ मोटी रकम पिताजी को,
मुझे मोटरसाइकिल और
 एक अदद 
बीबी  मिल जाएगी,
फ़िर कौन भकुआ
 कालेज आएगा!
जेठ या आषाढ़ में
सेहरा भी बंध जाएगा!
अरे ! तुम्हीं बताओ,
एक अकेला आदमी
कितने इम्तिहानों की
तैयारी करे?
दिन भर यहाँ आँखें फोड़े,
और रात को लालटेन पर
माथा पच्ची करे?
कुछ कमाने -गँवाने के भी
गुर भी तो होने चाहिए!
यही तो करता हूँ छठे -छवारे,
अँधेरे - उजेरे गली -गलियारे,
जल्दी से मिठाई बँट जाए,
अपना पैकिट पकड़ूँ 
और........."
"और क्या  ......
आगे कहो , कुछ बोलो,"
- गणतंत्र ने कहा।
"कुछ नहीं बड़े भाई  ऐसे ही
ये अपना 'निजू' मामला है,
तुम बस इतना ही समझो,
इन्क़िलाभ - जिन्दाबाघ!
इन्क़िलाभ -जिन्दाबाघ!!"

गणतंत्र ने सोचा-
'यही मेरी तस्वीर का
दूसरा रुख है,
यहाँ सुख में दुःख
और  दुःख का कोई
तीसरा ही रुख है!
हाँडी में 
एक चावल देख लेना था,
कहाँ -कहाँ भटका
तब यहाँ आ अटका,
हिंदुस्तान की है ये नई पीढ़ी,
कल के भारत की कर्णधार,
बुझी हुई अवशेष बीड़ी!
मुँह से इन्क्लाब जिंदाबाद
और  बगल में
जातिवाद , भाषावाद,
प्रांतवाद, मज़हबवाद,
वादों की बदबू ,
वादों का धुआँ,
वादों का नेता 
वादों की दुनिया,
टुकड़े  ही टुकड़े !
किरचें  ही किरचें! 
टूटे हुए शीशों के चर्चे ही चर्चे!
चर्चे  ही चर्चे!!'
💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
रचना -तिथि:
25.01. 1986

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...