बुधवार, 22 जनवरी 2020

कवियों के आभारी नेता! [ व्यंग्य ]


                हम नेताओं पर कवि , शायर , लेखकों और साहित्यकारों ने इतना अधिक लिख डाला है कि यदि उसको एकत्र करके एक ग्रंथ बनाया जाए ,तो एक महाभारत ही बन जायेगा। वह महाभारत कितने खंडों का होगा ,इसका पूर्वानुमान लगाना उतना ही कठिन है , जितना हनुमान जी की पूँछ की कुल लम्बाई नाप पाना। हम सभी नेतागण देश के सभी कवियों ,व्यंगयकारों, कार्टूनिस्टों , चित्रकारों , कहानीकारों , उपन्यासकारों आदि के बहुत बड़े ऋणी हैं। लेकिन इतना तो आप जानते ही हैं कि इस ऋण को हम चुकाने वाले नहीं हैं। यदि ऋण ही चुकाना होता तो हम नेता ही क्यों होते ? कुछ और नहीं होते?

            साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से हमें अमर कर दिया है। हमारे गुण , अवगुण सबका बखान इतने विस्तार से किया है कि हम नेता धन्य - धन्य हो गए हैं। यों तो ये सारा संसार गुण -दोषों से भरा हुआ है । किसी कवि ने कहा भी है : जड़ चेतन गुण -दोषमय, विश्व कीन्ह करतार। संत -हंस गुन गहहिं पय, परिहरि वारि विकार।। गुणों के साथ - साथ दोषों (अवगुणों) का होना अनिवार्य भी है। जैसे गुलाब की झाड़ी में जहाँ महकते गुलाबी फूल खिलते हैं , वहाँ काँटे भी तो उसकी शोभा में चार चाँद लगाते हैं। उसी प्रकार यदि हम नेताओं में भी फूल और काँटे साथ ही साथ रहते हैं। ये काँटे ही तो हमारे रक्षक हैं। इन्ही काँटों से हम जनता के हितैषी और शुभचिंतक भी बने रहते हैं।

              लोग हमें झूठ का पुलिंदा बताते हैं। इसमें कोई शक की बात नहीं है। यदि हम सच बोलते रहें तो हमारी अमर नेतागिरी अमर न होकर उसकी कमर ही टूट जाएगी और वह अमर से मरण की ओर चली जायेगी। इसलिए झूठ बोलना हमारा एक संस्कार ही बन जाता है। इसीलिए हमारे भाषण, आश्वासन और दिए गए वचन झूठ की चरम सीमा के चरम शिखर का स्पर्श करते हैं। हमारी हर गतिविधि में झूठ की खुशबू इस प्रकार व्याप्त रहती है , जैसे नाली में दुर्गंध। इससे हमें यह लाभ होता है कि हमारे विरोधी हमारी असलियत को नहीं जान पाते। इसीलिए पूरब को जाते हैं तो पश्चिम को बताना पड़ता है। बहुत ही सावधानी का जीवन है हमारा। अगर इस झूठ रूपी कवच से हम अपनी रक्षा नहीं करें तो हमारा जीवन जीना ही संभव नहीं रह सके। झूठ वस्तुतः हमारा रक्षा - कवच है।हमारे वादे , हमारे दावे - इसी झूठ से प्रभावित रहते हैं।

              आमजन की तरह हम देश के नागरिक हैं। लेकिन हमें उनसे ऊपर दिखाना पड़ता है। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हम कितने पढ़े -लिखे हैं। नेता के व्यवसाय में शिक्षा का कोई मूल्य हमारी अपनी दृष्टि में नहीं है। यदि हम शिक्षा को महत्व देते तो सभी आई ए एस , पी सी एस, प्रोफेसर , इंजीनियर , डाक्टर ,वकील ही देश के महान नेता होते। लेकिन हमने कभी भी शिक्षा को महत्व प्रदन नहीं किया।हाँ, इतना अवश्य है कि अपनी संतान को कान्वेंट , विदेशी विद्यालयों में पढ़ाना भी जरूरी हो गया है। इसलिए उन्हें अंग्रेज़ी जरूर पढ़ाते हैं, ताकि वे विदेश में जाकर अंग्रेज़ी में भाषण कर सकें। हमें भी अपने बाल-बच्चों को पालने के लिए कुछ करना पड़ता है। साम ,दाम ,दंड और भेद सभी तरीके अपनाने पड़ते हैं। जब घी सीधी अँगुलियों से नहीं निकलता तो उन्हें टेढ़ी करके निकालना ही पड़ता है।

 
                 हमारे लिए कोई काम न पाप है न पुण्य है। इसलिए तटस्थ भाव से हम कुछ भी कर लेते हैं। पाप पुण्य तो परिस्थिति विशेष के अनुसार ही पाप या पुण्य होता है। कोई भी काम अपने विशुद्ध रूप में न पाप है न ही पुण्य। इसलिए अपने शुद्ध अंतःकरण से कार्य करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। जन मानस और न्याय पालिका की दृष्टि से अलग हमारी अपनी दृष्टि है। यही कारण है कि अपने इन्हीं कर्मों की ख़ातिर हमें श्रीकृष्ण भगवान की जन्मभूमि में भी रहना पड़ता है। जब कारागार में भगवान अवतार ले सकते हैं तो क्या हम वहाँ कुछ वर्षों रह भी नहीं सकते ? कारागार वास्तव में समस्त सुविधाओं से सुसज्जित एक ऐसा पवित्र स्थल है , जहां प्रत्येक नेता को कुछ वर्षों तक रहना उसके चरित्र के एजेंडे में शामिल होना चाहिए।

                अपनी संतान किसे प्रिय नहीं होती ! यदि हम नेताजी अपनी औलाद को यदि विधायक या सांसद चुनवाकर विधान सभा या देश की संसद में भेजते हैं तो ये कौन सा गुनाह है ?वंशवाद का आरोप लगे तो लगता रहे। कौन चिंता करता है ? जिसके कोई आगे नाथ न पीछे पगहा , वह भला किसे मंत्री बनाएगा? किसान का बेटा किसानी कर सकता है, डाक्टर का बेटा डाक्टर बन सकता है तो नेता का बेटा नेता नहीं होगा तो क्या घास छीलेगा ? नेता बनना उसके खून में होना लाजिमी है। अन्यथा वह अपने बाप की संस्कारित संतान नहीं ! इसके लिए उसे परिवार से ही छल , दम्भ , द्वेष , पाखंड और अन्याय से निशि दिन दूर नहीं रहने की घुट्टी जो पिलाई जाती है। यदि नेता की औलाद को नौकरी ढूँढनी पड़े तो वहअपने बाप की असली संतान होने की काबलियत खो सकता है। पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं। ठीक वैसे ही नेता की औलाद के पाँव भी पालने से अपने आप बाहर फड़फड़ाने लगते हैं। वे सारे गुण ,जो भले ही अन्य लोगों के लिए अवगुण हों , उसे सुशोभित करने लगते हैं। उद्घाटनों, मुहूर्तों के अवसर पर उन्हें बढ़ -चढ़कर आगे रहने की ट्रेनिंग दी जाने लगती है। इस प्रकार नेता-पुत्र/पुत्री भी उसी राह के राही बन जाते हैं।

             यदि हम नेता न हों , तो देश का चलना भी मुश्किल हो जाय। हम हैं इसीलिए देश चल रहा है। वरना खड़ा रह जाता। हम चला रहे हैं ,इसलिए चल भी रहा है। चलती का नाम गाड़ी है।वरना वह ठाड़ी की ठाड़ी है। हमारी संस्कृति का मूल स्वर है : चरैवेति ! चरैवेति !! और वह चल रही है। देश चल रहा है क्योंकि हम नेता ही तो चलाने में सक्षम हैं। और जो चलाता है ,वह चालक कहलाता है। हम ही देश के चालक हैं। परिचालन के लिए तो हमारे चमचों की कोई कमी नहीं। गली -गली , मोहल्ले दर मोहल्ले , वार्ड दर वार्ड मिल ही जाते हैं। वे हमारे चालक हैं और हम देश के चालक हैं।

            हम निस्संदेह देश के कवि साहित्यकारों के कृतज्ञ हैं। आभारी हैं। अब ज़्यादा भी बखान मत कीजिए , अन्यथा हमें आप लोग देवताओं की श्रेणी में ही बिठा देंगे। वैसे यदि आज के युग के देवता हम से ज्यादा कौन हैं? देवदर्शन तो पुजारी जी को भेंट देकर जल्दी हो जाता है, लेकिन हमारा दर्शन ही नहीं, एक झलक पाना भी दुर्लभ है।
 💐    शुभमस्तु !
 ✍ लेखक © 🌷 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम
20.01.2020●9.50 अपराह्न।

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