गुरुवार, 30 जनवरी 2020

मैं आदमी हूँ [ व्यंग्य ]


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               आदमी की भाषा में मुझे आदमी कहा जाता है।पशु, पक्षियों ,कीड़े - मकोड़ों,अन्य जलचरों , नभचरों ,थलचरों की भाषा में चाहे कुछ भी कहा जाता हो ।आदमी को अपने आदमीपन का बड़ा अभिमान है।वह कहता है कि वह सर्वाधिक बुद्धिमान है। इसका उसे बड़ा ही गुमान है। इसलिए वह अपने को कहता है कि वह इंसान है।सबसे महान है। उसका आदमी होना ही उसकी शान है , पहचान है। 

       आदमी या इंसान में कुछ विशेषताएँ पशु -पक्षियों के समान हैं । जैसे आहार , निद्रा ,भय और मैथुन ये चार काम ।यदि आदमी को इन पशु आदि यौनियों से कोई अलग करता है , तो वह धर्म है।अपनी - अपनी देह और यौनि के अनुसार अन्य यौनियों में दिमाग भी होता है। सबसे अधिक बुद्धमता का नतीजा यह है कि उसने सभ्यता का विकास भी कर लिया है ,इसलिए अन्य सभी यौनियों को वह अपना दास या अधीनस्थ ही मानता है। उसकी इसी अति बुद्धिमता का परिणाम है कि वह जितना धर्म से बंधा हुआ है , उतना ही नियम -भंजक भी है।

       आदमी को वफ़ादार नहीं माना जा सकता। यदि वह वफ़ादार हो गया ,तो उसके अदमीपन के स्तर में उतार आ जायेगा। वह आदमी के उच्च आसन से गिरकर पशुओं की श्रेणी में रख दिया जाएगा। चूँकि वफादारी का तमगा उसने कुत्ते के गले में जो डाल दिया है। आदमी के वफ़ादार होने पर वह आदमी नहीं रह जायेगा। कोई कुत्ता नियम तोड़े या न तोड़े , लेकिन जब तक वह नियम नहीं तोड़ लेगा , उसे आदमी कौन कहेगा? वह आदमी ही कैसा जो नियम न तोड़े। आदमी जितना ऊपर के पायदानों पर चढ़ता जाता है, उतना ही अधिक नियम तोड़ने के प्रति उसकी बुद्धि कुलांचें मारने लगती है।अनैतिक कार्य करना , झूठ बोलना, राजमार्गों के नियम तोड़कर कर अदा न करना, मुफ़्त की सुविधाएं हासिल करके अपने को अभिजात सिद्ध करना, दूसरों की संपत्ति , स्त्री , जमीन आदि पर कब्जा कर लेना , अपने बच्चों में गुंडा तत्वों का अधिक से अधिक समावेश करना, कोरी हेकड़ी का रॉब गाँठना , राजनीति के छाते के नीचे वे सब अकर्म, सुकर्म , कुकर्म करना उसकी योग्यता बन जाती है।

              पढ़ -लिखकर उसमें अपराध करके सफ़ाई देने की चातुरी के विशेष गुण का स्वतः समावेश हो जाता है। पढ़ा - लिखा आदमी यदि राजनीति की खाल ओढ़ ले ,तो 'करेला फिर नीम चढ़ा' : वाली कहावत पूरी तरह चरितार्थ हो जाती है। 'समरथ को नहिं दोष गुसाईं ' के अनुसार आदमी को फिर तो कुकर्म औऱ सुकर्म में भी अंतर दिखना बन्द हो जाता है। उसके लिए कोई भी कर्म न पाप रह जाता है और न पुण्य ही। वह पाप -पुण्य के स्तर से ऊँचा उठ जाता है। पुण्य में भी पाप की गठरी अपने आप भारी होने लगती है। वह अपने को सर्वाधिक गुणी औऱ सशक्त मानने लगता है।औऱ उधर कुत्ता कुत्ता ही बना रह जाता है । आदमी तो भेड़िया , गिद्ध , चील ,दोमुंहा साँप जैसी विविध उपाधियों से सुसज्जित होता हुआ उस परम हंस गति को पा लेता है कि वह यह भी विस्मृत हो जाता है कि वह कौन था , कौन है औऱ अब क्या हो गया है!

                  सबसे महत्वपूर्ण बात है कि आदमी अपनी एक मनुष्य यौनि में कई सारी यौनियों के सुख समय -समय पर भोग लेता है। वह माने या नहीं माने , पर कभी वह कुत्ता भी होता है जब बॉस के सामने अपनी अदृश्य पूँछ हिलाता है।सुअर , गधा, गिद्ध , चील आदि सभी के स्वाद लेता है वह। जब काम पिपासा में नीति -अनीति भूल जाता है ,तब उसे सुअर, श्वान कुछ भी कह सकते हैं।जब दूसरों के धन और तन को निर्मम होकर नोंचता - खसोटता है तब वह गिद्ध, मच्छर, चील ,कौवा, जैसी यौनि का प्राणी होता है। संभवतः इसीलिए कुछ मनीषी कह गए हैं :
 पहले पशु है आदमी, और बाद में अन्य।
 तेरी करनी के लिए, तुझे धन्य ही धन्य।।
 💐शुभमस्तु !
 ✍लेखक ©
🤓 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
 30.1.2020●3.55अपराह्न
 www.hinddhanush.blogdpot.in


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