वक़्त के साथ इन्सां बदलता गया।
आदमी, आदमी को ही छलता गया।।
आतिशों पर कहर बारिशों का हुआ,
आदमी ,आदमी से ही जलता गया।।
इस क़दर आदमी बेमुरब्बत हुआ,
दायरों से भी बाहर निकलता गया।
खून के रिश्ते - नाते मिले धूल में,
राहे- ईमां से इन्सां फिसलता गया।
अब मोहब्बत की वो मंजिलें ढह गईं,
औ' मुसाफिर यहाँ हाथ मलता गया।
जिसको समझा था अपना वो अपना नहीं,
बेवफ़ा दिल ही दिल में वो छलता गया।
देख दुनिया के सारे नज़ारे 'शुभम',
कुछ मचलता गया कुछ सँभलता गया।
💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🦩 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
20.01.2020 ★5.55अपराह्न।
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