मुड़ - मुड़कर वह देख रही है।
लगता है वह यहीं कहीं है।।
लगता है वह विदा हो गई।
कभी लगा वह फ़िदा हो गई।
शिशिरकाल की चलाचली है।
मुड़- मुड़कर वह देख रही है।।
कोहरा कभी मेघ बरसाती।
ओले गिरते घाव बनाती।।
क्या उसका सन्देश सही है?
मुड़ - मुड़कर वह देख रही है।।
धुँधला-धुँधला नभ हो आया।
शीत-लहर ने हाड़ कँपाया।।
पथरीली अरु सर्द नदी है।
मुड़-मुड़कर वह देख रही है।।
पतझड़ आया पल्लव पीले।
गिरते भू पर बड़े हठीले।।
वृद्धा की पहचान बनी है।
मुड़-मुड़कर वह देख रही है।।
कभी धूप बाहर चमकाती।
धोखा देती आँख दिखाती।।
छाया में जा डाँट रही है।
मुड़ - मुड़कर वह देख रही है।।
गिरती बर्फ कभी पर्वत पर।
हम काँपे नन्हीं आहट पर।।
मौसम के संग बदल चुकी है।
मुड़-मुड़कर वह देख रही है।।
सर्दी देवी कृपा करो अब।
मन से हम स्नान करें तब।।
तड़पाए वह जन्म जली है।
मुड़-मुड़कर वह देख रही है।।
क्वार मास में आ जाती है।
फ़ागुन, माघ गज़ब ढाती है।।
सत्य'शुभम'का कथन यही है।
मुड़-मुड़कर वह देख रही है।।
💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
29.1.2020◆6.50 अप.
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