गुरुवार, 30 जनवरी 2020

मुड़-मुड़कर वह देख रही है [ गीत ]



मुड़ - मुड़कर वह देख रही है।
लगता है  वह  यहीं कहीं  है।।

लगता  है  वह  विदा हो गई।
कभी  लगा वह फ़िदा हो गई।
शिशिरकाल की चलाचली है।
मुड़- मुड़कर वह देख रही है।।

कोहरा   कभी   मेघ बरसाती।
ओले  गिरते    घाव  बनाती।।
क्या उसका  सन्देश  सही है?
मुड़ - मुड़कर वह देख रही है।।

धुँधला-धुँधला नभ हो आया।
शीत-लहर  ने हाड़  कँपाया।।
पथरीली  अरु  सर्द  नदी  है।
मुड़-मुड़कर वह देख रही है।।

पतझड़  आया  पल्लव पीले।
गिरते   भू  पर  बड़े  हठीले।।
वृद्धा  की   पहचान  बनी  है।
मुड़-मुड़कर वह देख रही है।।

कभी  धूप  बाहर  चमकाती।
धोखा देती  आँख  दिखाती।।
छाया  में  जा   डाँट  रही  है।
मुड़ - मुड़कर वह देख रही है।।

गिरती  बर्फ  कभी पर्वत पर।
हम  काँपे  नन्हीं आहट पर।।
मौसम के संग बदल  चुकी है।
मुड़-मुड़कर वह देख रही है।।

सर्दी  देवी   कृपा  करो अब।
मन  से  हम  स्नान करें तब।।
तड़पाए  वह  जन्म जली है।
मुड़-मुड़कर वह देख रही है।।

क्वार   मास   में आ जाती है।
फ़ागुन, माघ  गज़ब ढाती है।।
सत्य'शुभम'का कथन यही है।
मुड़-मुड़कर वह देख रही है।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

29.1.2020◆6.50 अप.

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