68/2023
[केतकी, कचनार, रसाल, ऋतुराज, किंशुक]
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✍️ शब्दकार ©
🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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🌾 सब में एक 🌾
मोहमदी में मेंहदी, नामक है उद्यान।
खिलता मोहक केतकी,सुमन सुगंधित जान।
कारण अपने झूठ के,श्रापित शिव से फूल।
सभी जानते केतकी, मत कर अर्चन भूल।।
पंखुड़ियाँ कचनार की,पंच तत्त्व-सी आज।
रंग बैंजनी में रँगी, सजता फागुन - ताज।।
कोकिल गाता आम पर,महक रही कचनार।
सुमन परस्पर बोलते, बहती मंद बयार।।
महक उठा मधुमास में,देखो सघन रसाल।
कोकिल के स्वर गूँजते,बौराई हर डाल।।
कंजपुष्प सित नील भी,नवमल्लिका अशोक
खिलते बौर रसाल के,कामबाण इस लोक।
आने को ऋतुराज हैं,पल्लव-स्मिति लाल।
नाच रहा अश्वत्थ द्रुम,बदली कामिनि चाल।
घूम-घूम वन-बाग में,कोकिल करे धमाल।
आए हैं ऋतुराज जी,चलें उठा निज भाल।
सुग्गे जैसी चोंच- से,किंशुक फूले लाल।
कहे अटारी तिय खड़ी,लगी वनों में ज्वाल।।
आओ किंशुक फूल से,निर्मित करके रंग।
होली खेलें प्रेम से, आपस में नित संग।।
🌾 एक में सब 🌾
किंशुक वन में झूमते,
तरु रसाल कचनार।
दे सुगन्ध अति केतकी,
शुभ ऋतुराज बहार।।
🪴शुभमस्तु !
14.02.2023◆11.30प.मा.
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