65/2023
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✍️शब्दकार©
🪞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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होती हूँ
समक्ष दर्पण के
जब मैं खड़ी,
समझती हूँ
हसीना
भूमंडल की
मैं ही सबसे बड़ी।
मेरा नाक नक्श
मेरा रूप रंग,
सबसे ही अलग है
उसका रंग -ढंग,
छाया ही रहे
देह- नयनों में अनंग,
निहारे जो
मेरी ओर
रह जाता है दंग!
जो भी निहारे
मेरी हिरनी -सी चाल,
देखते ही पल भर में
हो - हो जाए निहाल,
ढूँढ़े नहीं धरतीं पर
मेरी मिसाल,
एक ही बनाई मैं
साँचे में ढाल।
नहीं बना
कोई दूसरा साँचा,
उपमा नहीं ऐसी
बनाए ऐसा ढाँचा,
एक ही बस एक ही
मात्र मैं औऱ कोई नहीं,
बात सोलह आने सही।
दीपक पर ज्यों
गिरते हैं सैकड़ों पतंगे,
निकल जाऊँ बाहर
तो हो जाएँ दंगे,
मतों के लिए जैसे
गलियों में मतमंगे।
पर मुझे क्या!
गजगामिनि - सी
चलती चली जाती हूँ,
इधर -उधर बिजलियाँ
गिराती हूँ
आगे बढ़ जाती हूँ,
अपनी ही मस्ती में
मैं 'शुभम्' मदमाती हूँ,
इठलाती बल खाती हूँ,
फागुन के महीने -सी
रंग बरसाती हूँ।
🪴शुभमस्तु !
10.02.2023◆6.15 आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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