शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

हम कैसे आजाद?.🌾 [ दोहे ]

 64/2023


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✍️ शब्दकार ©

🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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 बिछा जहाँ बोरा दिया,बसा वहीं घर - बार।

देश   धर्मशाला  हुआ,  धर्मों का    बाजार।।

किया नहीं कुछ देशहित,खाया उसका अन्न।

दीमक   जैसा  चाटता, फैलाता    अवसन्न।।


नहीं  देशहित  पेड़  का,तोड़ा तिनका  एक।

चाहत बहु अधिकार की,शेष न बचा विवेक।

चोरी  से  घुसपैठ  कर, माँग रहे   अधिकार।

राशन  पानी  मुफ़्त का, देश किया  बेजार।।


चाह  देश  को तोड़ना, करना टुकड़े   पाँच।

देखा  चारों  ओर  ही,  सुलग रही  है आँच।।

सड़कें  पटरी  रेल की, बिछा चादरें  सब्ज।

हक अपना जतला रहे,तेज धड़कती नब्ज।।


जैसे  भी  हो  लूट लो,नहीं बाप का देश।

भिखमंगा  पहले  बनो,बढ़ा शीश के केश।।

अँगुली की ले राह वे, ग्रीवा तक दे  दाब।

क्यों  मानें अहसान वे,पीकर गंगा   आब।।


संविधान  कैसा  बना,जो  न दे  सके सीख।

चोर राज ये छीनता, माँग- माँग कर  भीख।।

नेता मत के लोभ में ,आँख मूँद  कर मौन।

बहरे  कानों से  सभी,ललकारे अब   कौन।।


भीड़तंत्र जनतंत्र को,करता नित बरबाद।

चिंता से  भौंहें  तनी,हम  कैसे आजाद??


🪴 शुभमस्तु !


08.02.2023◆5.00प.मा.

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