83/2023
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✍️ व्यंग्यकार ©
🧚🏻♀️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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सबको लगे प्रशंसा प्यारी।
आलू तज पनीर तरकारी।।
यदि कोई मेरी प्रशंसा करता है ,तो मुझे बहुत ही अच्छा लगता है।आपको भी लगता होगा। सबको लगता है।जब कोई किसी की प्रशंसा कर रहा होता है ,तो प्रतीत होता है कि शरीर के भीतर न जाने कितनी सी.सी . रक्त बढ़ गया हो और वह भी तब; जब न तो किसी बोतल सिरिंज से चढ़ाया गया हो और नहीं किसी का रक्त - चूषण ही किया गया हो। प्रशंसा से भीतर ही भीतर मानो रक्त का स्रोत स्वतः उमड़ उठा हो। आदमी अंदर से ही फूलने लगता है और बोले जा रहे झूठ का प्रतिकार करने का भी साहस नहीं कर पाता।यह प्रशंसा का बहुत बड़ा चमत्कार है।
प्रशंसा का भी कोई न कोई आधार होता है। निराधार तो यह धरती भी अपनी धुरी पर नहीं भ्रमण करती।कहीं वह स्वार्थ के शहद में लपेटकर
थोपी जाती है,तो कहीं किसी प्रलोभन या लालच वश पोती जाती है।जैसे विवाह के इच्छुक लड़के या लड़की के लिए प्रशंसा का मधुर- मधुर आवरण लपेटा जाना अनिवार्य माना जाता है। यदि
ऐसा नहीं किया जाता तो कालिदास औऱ विद्योत्तमा का विवाह भी नहीं हो पाता।कहा जाता है कि यदि कोई काम बन रहा हो तो झूठ भी सच से अधिक रंगीन हो जाता है। जिस प्रकार कालिदास के साथ आए हुए पंडितों ने अपने तर्कों से विद्योत्तमा को कालिदास का लोहा मनवाने के लिए बाध्य कर दिया।औऱ उसी झूठी प्रशंसा का सु- परिणाम यह निकला कि विदुषी विद्योत्तमा के साथ सप्तपदी लेकर जड़ कालिदास संस्कृत के महान महाकाव्यकार बनकर विश्व विश्रुत हुए। इसी पैटर्न पर आजकल क्या सदैव से ही लड़के - लड़कियों के शुभचिंतक बिचौलिए झूठी प्रशंसा से सात जन्म के बंधनों में बँधवाते चले आने का पुण्य अर्जित करते आ रहे हैं औऱ भविष्य में भी करते जाएँगे।
इतना तो मानना पड़ेगा कि प्रशंसा में झूठ की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।झूठ के महान योगदान से ही काले अक्षर का स्वामी विधान सभा और लोकसभा में कैबिनेट मंत्री की ऊँची कुर्सी की शोभावृद्धि करते हुए देखा जाता है।जिन्हें उनकी योग्यता के बलबूते कोई एक चपरासी की नौकरी भी नहीं देगा ,वे देश सेवक बनकर देवी- देवताओं की तरह पूजे जाते हैं।कतारबद्ध होकर आप मंदिर के देवी -देवताओं के दर्शन तो कर सकते हैं,किन्तु यहाँ यह संभव ही नहीं है।इन तथाकथित मंदिरों में प्रसाद मिलता नहीं ,वरन जगह -जगह देना पड़ता है,फिर भी दर्शन की कोई प्रत्याभूति नहीं है।हमारे यहाँ यह भी माना औऱ कहा जाता है कि मक्खन खाने से बेहतर होता है ,मक्खन लगाना।यह मक्खनबाजी भी एक कला है। कला भी ऐसी कि इसे हर एक नहीं सीख सकता।बड़े ही अनुभव औऱ प्रशिक्षण के बाद ही इसके 'गुर' सीखे जाते हैं।प्रशंसक एक अच्छा कलाकार बन कर उभरता है।
किसी की प्रशंसा करते समय झूठ और सच के घोल का अनुपात क्या हो ?इसका कोई पूर्व निश्चित मानक नहीं हैं। यह पृथक् - पृथक् पात्रों पर पृथक् रूप में ही प्रभावी होता है।इसकी सर्वकालिक औऱ सार्वभौमिक कोई सुनिश्चित
नियमावली या आचार संहिता नहीं बनी। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो आत्मस्तुति करते हुए भी नहीं अघाते। ऐसे लोगों को हमारे यहाँ मियां मिट्ठू की संज्ञा से अभिहित किया जाता है।जब किसी के व्यक्तिगत विवरण (रिज्यूमे) माँगा जाता है तो बहुत कुछ ऐसी विशेषताएं जोड़ दी जाती हैं, जिन्हें गूँगा के घर वाले क्या स्वयं गूँगा भी नहीं जानता। मानव समाज में कुछ ऐसे वर्ग औऱ वर्ण भी विद्यमान हैं, जिनका व्यवसाय ही है कि दूसरों की प्रशंसा का स्तुति गान करें औऱ इनाम पाएँ।उनकी रोजी - रोटी का आधार क्या रोजी -रोटी ही कहिए कि चार पैसे उन्हें इसी प्रशंसा से ही मिल पाते हैं।
यह एक सैद्धांतिक सत्य है कि जिसके प्रति हम आसक्त होते हैं अथवा चाहते हैं ;उसकी बुराइयों के प्रति हमारी आँखें स्वतः बंद हो जाती हैं। वहाँ हम देखकर भी अंधे बन जाते हैं। उसकी खटाई में से भी दूध की क्रीम निकाल ही लेते हैं।इसलिए वह हमारी प्रशंसा का प्रिय पात्र बन जाता है।जब वही प्रिय पात्र , मित्र अथवा सम्बन्धी खटास देने लगता है तो वह खटास फिर शहद नहीं कुनैन बन जाती है। साझे का घड़ा चौराहे पर धड़ाम हो ही जाता है। इस प्रकार यह प्रशंसा गुण- सापेक्ष नहीं , हमारे सम्बंध-सापेक्ष /स्वार्थ -सापेक्ष होती है।दाँत काटी रोटी वाले यार रातों रात कट्टर दुश्मन बनकर प्रकट होते हैं। इस प्रकार जो हमारे जितने निकट होता है,वह उतना ही घातक आस्तीन का साँप बनकर डसने की कोशिश करता है।
हमारे प्राचीन आदि और रीतिकालीन साहित्य में साहित्यिक प्रशंसा के एक नहीं ,अनेक उदाहरण मिलते हैं। 'जिसकी खाना, उसकी गाना' के सिद्धांत पर सभी राज्याश्रित कवि (आदि काल तथा रीतिकाल) राजा रानियों ,उनके यश- वैभव,पराक्रम, सेना,राज्य विस्तार आदि की प्रंशसा सौ- सौ गुणा बढ़ -चढ़कर करते रहे। चंद्रबरदाई ,बिहारी, घनानंद, केशव, भूषण आदि का साहित्य प्रशंसाओं का क्षीर सागर ही है।समाज हो, साहित्य हो या राजनीति का अखाड़ा हो ;सर्वत्र प्रशंसा रूपी फसल लहलहाती हुई दृष्टिगोचर होती है।यह एक ऐसा घेवर है कि बच्चा, किशोर ,जवान,प्रौढ़ ,बूढ़ा सभी को लालसा है।दाँत हों या बेदान्त हो, सभी सहज रूप में उदरस्थ करने को सन्नद्ध हैं।इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। नहीं कह सकता कि बस - बस , अब और नहीं ।मेरा पेट पहले से ही भरा हुआ है। मैं तृप्त हुआ बैठा हूँ। परंतु आज तक क्या ऐसा भी कोई पैदा हुआ है, जिसका प्रशंसा सर पेट भर हुआ हो? प्रशंसा तो त्वरित पाचनशील है। फिर पेट भरेगा ही क्यों औऱ कैसे?
🪴 शुभमस्तु !
22.02.2022◆3.00प.मा.
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