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✍️ शब्दकार ©
🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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ज्ञान - रूप है सूर्य निराला।
हरता नित जग का तम काला।
एकमात्र ईश्वर ही ज्ञानी।
मानव ने अपनी ही तानी।।
ज्ञानी नहीं ज्ञान दिखलाता।
उसका मौन ज्योति बन आता।।
अहंकार का तमस नहीं है।
समझें ज्ञानी वही सही है।।
रामायण बहु वेद पुराना।
लिखे ग्रंथ ज्ञानी जन नाना।।
जो जितना नर ऐंचकताना।
चाहे तमवत जग में छाना।।
मिथ्या भाषण अति वाचाली।
जीभ सदा उसकी ही काली।।
रखता सदा ज्ञान से दूरी।
मुँह में राम बगल में छूरी।।
निकट नहीं ज्ञानी के जाता।
मूढ़ पुरुष जन को भरमाता।।
ज्यों उलूक दिन में नित सोता।
बीज आलसीपन के बोता।।
ज्ञानी में बहु दोष निकाले।
सत्ता तब ही मूढ़ सँभाले।।
उजला ज्ञान अँधेरा काला।
फैलाए अज्ञानी जाला।।
ज्ञानी जन को जो अपनाए।
प्रभु - वाणी में रम- रम जाए।।
'शुभम्' गीत ज्ञानी के गाएँ।
भागें अज्ञानी शरमाएँ।।
🪴 शुभमस्तु !
27.02.2023◆1.30प.मा.
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