शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

आस्था की कमी 🪷 [आलेख ]

 72/2023

  ■●■●■●■●■●■●■●■●■● 

 ✍️ लेखक © 

 🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 ■●■●■●■●■●■●■●■●■● 

       मानव - जीवन में अनेक जीवन - मूल्यों की मान्यता है।इन मूल्यों के आधार पर ही हमारी संस्कृति और सभ्यता का विशाल भवन निर्मित हुआ है।ज्यों- ज्यों मानव के कदम भौतिकवाद की ओर बढ़ रहे हैं ,हमारे समस्त जीवन - मूल्यों में निरंतर ह्रास हो रहा है।प्रेम, दया, ममता, करुणा,वात्सल्य, श्रद्धा, भक्ति आदि के प्रत्येक रूप में उनका क्षरण हुआ है।मानवीय अधिकार ,कर्तव्य और न्याय हमारे सामाजिक जीवन के आधार हैं।उधर शांति, प्रेम, अहिंसा आदि हमारे अध्यात्म के आधार स्तम्भ हैं।

     हमारी प्राचीन गुरुकुल शिक्षा- पद्धति मानवीय मूल्यों की सशक्त आधार रही है।जहाँ अध्ययन करने के बाद विद्यार्थी एक पूर्ण मनुष्य बनकर अपने घर लौटता था। हमारी भारतीय संस्कृति सदैव से जीवन - मूल्यों की पोषिका औऱ संरक्षिका रही है।उसने ही जीवन मूल्यों का विकास और प्रचार- प्रसार भी किया है। 

         निरन्तर बढ़ते हुए भौतिकवाद ने हमें हमारे मूल्यों से पतित कर दिया है। हमारे परिवार जीवन- मूल्यों के संरक्षण की प्रथम पाठशाला है औऱ हमारे माता- पिता तथा वरिष्ठ ज़न ही उसके शिक्षक ,पोषक, प्रशिक्षक और संवाहक रहे हैं।किंतु परिवार और समाज में अब उस प्रेम ,लगाव, घनिष्ठता और सहयोग की भावना का निरंतर क्षरण हो रहा है। मनुष्य का मनुष्य से पारस्परिक विश्वास विखंडित हो गया है। अपने माता- पिता, गुरु ,परिजनों के प्रति आस्था क्षीण होती जा रही है। निजी स्वार्थों में संलिप्त होने के कारण किसी की सहायता करना या किसी की सहायता लेना उचित नहीं माना जाता। जिन कल- कारखानों में हजारों लोग काम करते थे , वहाँ कार्य का निष्पादन कुछ मशीनों से मात्र इन - गिने कारीगरों द्वारा पूर्ण कर लिया जाता है।पहले यदि मजदूर कोई छप्पर बनाते थे ,तो पूरे मोहल्ले के लोग उसे उठवाने के लिए सहर्ष पहुँच जाते थे ।इधर आज उनका चलन भी कम हो गया है। पैसे के बढ़ने के कारण बुलाने पर भी कोई किसी का सहयोग नहीं करता। 

           आज का धर्म- कर्म दिखावा अधिक और यथार्थ नगण्य रह गया है।आज प्रदर्शन ही धर्म है। आडम्बरों में उलझा हुआ आदमी किसी को कुछ भी नहीं गिनता। बस उसका नाम और फोटो अखबारों,टीवी और सोशल मीडिया पर चमकना चाहिए।उसे वाह वाह मिलनी चाहिए। 

              इस आस्था की कमी का दुष्परिणाम यह देखा जा रहा है कि मनुष्य मात्र मशीन बनकर रह गया है।उसे किसी के प्रति कोई विश्वास नहीं रह गया। लगाव नहीं रह गया है। मित्र ही अपने मित्रों के हत्यारे हो रहे हैं। मित्रता में स्वार्थ के कलंक उसे कलुषित कर रहा है। यह मनुष्य की मूल्यहीनता का ही परिणाम है कि बेटे औऱ बहुएँ अपने वृद्ध सास- ससुर और माता -पिता को घर में नहीं देखना चाहतीं। अपने विलासिता पूर्ण जीवन को बेधड़क जीने के लिए उनके लिए वृद्ध आश्रम में ही शरण देना उचित समझा जा रहा है।मानवता निरंतर पतित होती जा रही है। आज सड़क पर दुर्घटना होने पर कोई किसी की मदद नहीं करता ,क्योंकि वह किसी पुलिस या कानूनी पचड़े में नहीं पड़ना चाहता। लगता है कि शनैः - शनैः मानव मूल्य मरते जा रहे हैं। यह मनुष्य जाति के अपने मरण की आरंभिक स्थिति है। जब मूल्य ही नहीं, तो प्रकृति उसे बनाए रखकर भी क्या करेगी? मनुष्य अपना विनाश स्वयं निश्चित करते हुए अधः पतन के कूप में जा रहा है। मूल्यहीनता औऱ मानवीय अनास्था के लिए वह स्वयं उत्तरदाई है।उसकी अति बौद्धिकता से वह हृदय हीनता की ओर निरन्तर अपने कदम बढ़ाता हुआ मरणशील हो रहा है। फिर क्या हुआ जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत।रह जायेगी घर बाहर बस अमानवीयता की रेत ही रेत। 

 🪴शुभमस्तु! 

 17.02.2023◆11.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य। 

🪴🪷🪴

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...