029/2024
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●© लेखक
● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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आज जनतंत्र दोराहे पर खड़ा हुआ नहीं है।उसने यह भलीभाँति तय कर लिया है कि उसे किधर जाना है।अब ऐसे काम चलने वाला नहीं है। जनतंत्र को अपने रास्ते पर चलने के लिए यों तो कई रास्ते हो सकते हैं।उन सभी रास्तों पर चलकर भी उसने बखूबी देख लिया है।वह जनतंत्र ही क्या जो जन या जनता की नब्ज़ की धड़कन को न पहचाने।आज के जनतंत्र और उसके ऊपर बैठे मठाधीशों ने यह अच्छी तरह जान और समझ लिया है कि नब्ज़ किस ओर धड़क रही है।इसलिए आम जन और आम जनता की धड़कन को पढ़ना भी बहुत जरूरी है।उसने नब्ज को भी पढ़ लिया है।
विलासिता से अघाया हुआ आदमी भगवान का सहारा लेना पसंद करता है।भगवान को यदि कहीं पाया जा सकता है तो अपने विश्वास में। उसका सबसे बड़ा विश्वास उसके इष्टदेव का स्थान अर्थात मंदिर है।मंदिर अर्थात धर्म की ओर रुख किया जाए तो हो सकता है ,हमारे इष्टदेव उद्धार कर ही दें। वैसे भी जनता को जनार्दन कहा जाता है। साक्षात भगवान ही माना जाता है। जो जनता भगवान का पर्याय हो ,उसके रुख को पहचानना ही बुद्धिमता कही जाएगी।वह किसमें विश्वास करती है। उसके विश्वास को अपना विश्वास बना लेना ही जनतंत्र की समझदारी है।
सामान्यतः जन और जनता तंत्र का अनुगमन करती है;अनुसरण करती है। जब गंगा उलटी बहने लगे तो समझना चाहिए कि तंत्र को खतरे का आभास हो रहा है।इसलिए वह भयभीत है।गंगा उलटी दिशा में प्रवाहित हो रही है,यह स्पष्ट है और आज तंत्र भी जन - भावना का अनुसरण करते गए पूजा-पाठ,हवन-पूजन,तंत्र-मंत्र-यंत्र,कर्मकांड आदि का मुरीद (अनुगामी)
हो गया है।यही कारण है कि संभावित ख़तरे को भाँपते हुए उसने अपनी कार्य प्रणाली को बदल लिया है। अब यह तो भविष्य ही जाने कि इसका क्या परिणाम हो।
आमेर नरेश मिर्जा राजा जय सिंह की दिशा और दशा कविवर बिहारीलाल के एक दोहे ने ही पलट दी थी और वह अपनी नवोढ़ा रानी के मोह पाश से मुक्त होकर अपना राजपाट सही रूप से चलाने के लिए जाग गए थे।जो पुजारी मंदिर आने जाने वाले भक्तों की गतिविधियों और वार्ताओं को सुनता है ,वह भला भक्तों की वास्तविक नब्ज़ की आवाज से कैसे अनभिज्ञ रह सकता है ?इसीलिए गंगा का प्रवाह परिवर्तित हो गया है।
मिला हुआ अधिकार भला कौन छोड़ना चाहता है।अब चाहे वह सत्ता हो या सिंहासन ;उसके प्रति आसक्ति हो जाना स्वाभाविक ही है।यद्यपि अपने दोष और अपराध स्वयं अपनी आँखों से दिखाई नहीं देते। किन्तु यदि कोई आईना दिखाने का प्रयास करता है,तो सहज स्वीकार करना भी आदमी की फ़ितरत में नहीं है।इसलिए वह अपने गलत कृत्यों की समर्थक - सेना खड़ी करना भी खूब जानता है; जो उसकी भूलों पर मख़मल का पर्दा डालकर गोबर को कलाकंद सिद्ध करने में लगी रहती हैं।ऐसा हर राजतंत्र और जनतंत्र में होता है। प्रत्येक कुर्सीनसीन के साथ होता है। क्योंकि चमचों को भी भगौने चाटने में भरपूर आनंद आता है।इसलिए वे सत्ता या उच्चासन के विपरीत जाएँ तो कैसे जाएँ ! उनका भला इसी में है कि वे दिन को अगर रात कहा जाए तो रात ही कहें। नीम के पेड़ को आम कहलवाया जाए तो आम ही कहें। अरे भई!उन्हें भी तो अपने उल्लू सीधे करने हैं। और यहीं से करने हैं।उन्हीं से करने हैं। विरोधी भला क्या खाकर किसी का कल्याण करेंगे !
जब सारे प्रयास अर्थात साम, दाम, दंड और भेद काम नहीं आते ,फिर तो एक भगवान का भरोसा ही बचता है;जिसके सहारे डूबती हुई नैया को पार लगाने की आशा की जा सकती है, की भी जाती है। जन को भरम में डालकर यदि उल्लू सीधा किया जा सके ,तो क्यों न किया जाए!एकमात्र भरोसा भगवान का ही तो है। अब उसी की रस्सी थामकर ,धर्मतंत्र को जन तंत्र का उद्धारक मानकर बेड़ा गर्क होने से बचाने के लिए सोचना ही आज की प्रासंगिकता है।
●शुभमस्तु !
17.01.2024●8.30प०मा०
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