बुधवार, 17 जनवरी 2024

ओ मेरे मन! ● [आलेख ]

 026/2024

    

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●© लेखक 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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         ओ मेरे मन ,आओ ! मेरे पास आओ।आज कुछ पल पास-पास बैठें।एक दूसरे को जानें। तुम तो मुझे अच्छी तरह जानते हो। पहचानते हो।पर मैं तुम्हें कितना जान पाया हूँ। कह नहीं सकता। इसलिए सोचा ,आज ही नहीं वरन दो दिन से सोच ही रहा हूँ कि मैं और तुम ,तुम और मैं पास -पास बैठें और अपनी - अपनी कहें। तुम कैसे कहोगे। मुझे स्वतः ही समझना पड़ेगा।तुम्हें जानना पड़ेगा। तुम तो मूक हो। फिर भी मुझे क्या मेरे सारे तन को चलाते हो।दसों इंद्रियों को चलाते हो। संचालक होने के लिए मुँह और उसमें वाणी होना जरूरी जो नहीं है।

  ओ मेरे  मन ! आज मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ।हे मन !तुम तन में रहते हो।'मन'और 'तन' कविता के समतुकांत की तरह  एक ही तरह के दो नाम।एक दूसरे से सर्वथा संपृक्त रहते हुए भी असंपृक्त।एक निराकार तो दूसरा साकार।एक घर तो एक उसका निवासी नागर।जैसे किसी सागर में  अदृष्ट गागर।तुम्हारे बिना इस तन का कोई महत्त्व नहीं,मूल्य नहीं।तन में बसा हुआ मन।

         इस विशाल तन में रहते हुए भी मैं यह नहीं जान पाता कि तुम कहाँ हो।तुम्हारी स्थिति कहाँ है। भले ही तुम निराकार हो,तो भी कहीं न कहीं तो रहते बसते होगे।इस तन की एक- एक छोटी बड़ी गतिविधि के नियामक तुम्हीं तो हो।बिना तुम्हारे इस तन की कोई भी क्रिया सम्पादित नहीं होती।जब तन सो जाता है ,तब भी तुम अनवरत जागते रहते हो।यहाँ तक कि स्वप्न लोक में न जाने कहाँ -कहाँ की सैर कराते हो।इतना व्यस्त रहने के बावजूद तुम्हें थकते नहीं देखा गया।रुकते नहीं देखा गया। तुम्हारी कार्य यात्रा निरंतर चलती ही रहती है।

हे  मेरे मन ! यदि गति की बात की जाए तो तुम्हारी समता में कोई भी नहीं टिक पाता।विद्युत गति से भी लाखों गुना तीव्र गति से दौड़ने वाले हे मेरे मन ! कवियों को तो कुछ और ही तीव्र गति प्रदान की है।वे न जाने किन अज्ञात लोकों की सैर करते और कराते हैं। अपनी कविता के माध्यम से पाठक  और श्रोताओं को जाने कहाँ-कहाँ ले जाते हैं।ये असम्भव सामर्थ्य यदि कहीं है ,तो केवल तुम्हारे पास है, कहीं और नहीं है।

   कहा जाता है कि जब दसों  प्राणों और उपप्राणों द्वारा इस तन को छोड़ दिया जाता है तो दसों इंद्रियों के सूक्ष्म रूप के साथ तुम भी बाहर चले जाते हो।तुम तो अरूप हो ही।बाहर भी अरूप ही रहोगे।परंतु जीव की प्रेत या पितर योनि में जाकर क्या शांत बैठे रहोगे? क्योंकि स्थिरता तो तुम्हारी प्रकृति में है ही नहीं।वहाँ भी कुछ न कुछ गतिमान रहोगे ही ;यह मैं समझता हूँ।उधर ऐसा भी है कि बिना तन के तुम कुछ कर नहीं पाओगे, ये बात अलग है।तुम्हें तो तन के वन में विचरण करना ही भाता है।क्योंकि तन से ही तो तुम्हारा घनिष्ठ नाता है।बिना तन के मन सर्वथा क्रिया शून्य बन जाता है।

हे मेरे मन! अब तक न जाने तुम कितने मनों से मिले हो।कोई तुम्हें भाया ,कोई नहीं भाया।किसी से मिले ,तो मिल कर भी नहीं मिले। और यदि किसी से मिल गए तो ऐसे जैसे दूध में शक्कर।हजारों किलोमीटर की दूरियाँ पार करके भी तुम मिल गए,और यदि नहीं मिले तो एक छत के नीचे  साथ रहने वाले से भी नहीं मिल सके।कहते हैं कि तुम मैले भी होते हो और निर्मल भी होते हो।तुम वह मन नहीं कि गंगा नहाने भर से निर्मल हो जाए।तुम तो यदि हो चंगे !तो घर में ही हर- हर गंगे!!तुम्हारी हर प्रकृति विचित्र है।यही कारण है कि दूर बसा हुआ भी तुम्हारा प्रियवर है ! प्रेय है ! किसी गीत की तरह गेय है! और पड़ौस में रहने वाला भी कोई हेय है।मन ही मन को जाने। मन ही मन को पहचाने। हे मन! तुम्हारे मापने के हमारे पास नहीं हैं पैमाने।तुम्हारी लीला  तुम्हीं जानो।

 ऐ मेरे  प्रिय मन! तुम खट्टे भी हो जाते हो तो मधुर भी होते हो।मधुर होने पर सम्बन्ध भी मधुर हो जाते हैं और तुम्हारे खट्टेपन से रिश्तों में भी खटास घुल जाती है।खट्टे ही नहीं,तुम्हें कड़ुए होते हुए भी पाया गया है।ऐसा भी कुछ जीवन का कटु अनुभव है।

कभी- कभी तो ऐसा भी हुआ है कि तुम भीग - भीग गए हो।इसे सामान्य भाषा में करुणा या दया भाव कहते हैं।जब तुम हर्षित होते हो तो ये तन फूल की तरह हलका हो जाता है।रोम-रोम से हर्ष की फुहार - सी बरसने लगती है।इस तन की सारी दशा और दिशा तुम्हीं तो सुनिश्चित करते हो।दस घोड़ों के इस तन रूपी रथ के चालक तुम्हीं तो हो मेरे मन! भला कोई भी दैहिक हलचल तुम्हारे बिना भी सम्पन्न हो सकती है ? जहाँ तुम ले जाते हो, ये तन-रथ वहीं गतिमान होता है।

हे प्रिय मन!तुम अदम्य हो।यद्यपि यह असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।जिसने तुम्हें अपने वशीभूत कर लिया ,वह तुमसे असम्भव को भी सम्भव करा सकता है। तुम्हारी शक्ति और सामर्थ्य दोनों ही अपार हैं।तुम्हारा कितना भी गुणगान किया जाए,कम है। मेरी शब्द - क्षमता से परे है। हे मन ! तुम तुम ही हो। सर्वथा अतुलनीय !अवर्णनीय!!सर्वथा अकल्पनीय !!! फिर भी तुमसे मिलने का एक छोटा-सा प्रयास किया है।अब यह तो तुम ही जानो कि इस कार्य में कितना सफल हुआ हूँ।


●शुभमस्तु !


15.01.2023●4.00प०मा०

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