गुरुवार, 25 जनवरी 2024

कण-कण में श्रीराम ● [ कुंडलिया ]

 032/2024

    

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●©शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                    -1-

रमते  हैं   श्रीराम  जी,कण-कण में ये    जान।

अंतरतम  निज  खोज  ले,वहीं राम  पहचान।।

वहीं   राम   पहचान,  मनुजता उनसे    सीखे।

तभी मनुज तन बीच,मनुज-सा मानव   दीखे।।

'शुभम्'    पाल  सद्धर्म, सिंधु  से पापी   तरते।

करना    ऐसे    कर्म,  राम   कर्मों  में    रमते।।

                       -2-

करना  तुझको  चाहिए,  कौन न जाने   तथ्य।

मूढ़  न  इतना  आदमी, यही  बात है    सत्य।।

यही   बात    है   सत्य,   ढूँढ़ता  बाहर  मानव।

करता   खोटे   काम,  बना  अंतर से   दानव।।

'शुभम्'  झाँक  श्रीराम, कर्म   से   होगा तरना।

आदर्शों   को  जान,  धर्म   का पालन  करना।।


                         -3-

जपता    है   श्रीराम  की, माला  कर   में   नित्य।

पर   नारी   पर   दृष्टि है,   कृत्य  नहीं   औचित्य।।

कृत्य  नहीं औचित्य,तिलक मस्तक  पर  सज्जित।

करता  पापी  कर्म,  नहीं  पल  भर को  लज्जित।।

'शुभम्'   भक्ति   हे मूढ़,  वृथा  है  जो  नर  तपता।

माला   मन   की   फेर,  अकारथ जो तू   जपता।।


                           -4-

मेरा   -  मेरा   ही  किया,  किया नहीं     उपकार।

जाने   क्यों    श्रीराम    तू,  क्या  रटता   बेकार।।

क्या    रटता    बेकार,  परिग्रह    में   रत   मानव।

धर्म - ध्वजा    को   तान, बना कर्मों   से   दानव।।

'शुभम्'    ढोंग   के  वेष,  सजाए सब   कुछ  तेरा।

बढ़ा     लिए   हैं    केश,    चीखता   मेरा -  मेरा।।


                         -5-

राजा     को   वह  चाहिए, जैसे   थे     श्रीराम।

जन - जन का आदर्श  हो,सदा विरत हो काम।।

सदा    विरत  हो   काम, एक आदर्श    बनाए।

पति, भ्राता, सतपुत्र ,  पिता  का धर्म    निभाए।।

'शुभम्' प्रजा के  हेतु,करे शुभ ही शुभ   काजा।

आडंबर     से   दूर,   बने   वह सच्चा     राजा।।

●शुभमस्तु !


 19.01.2024●11.45 आ०मा०

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