शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

मैं कर्ता हूँ!' ● [आलेख ]

 008/2024

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● © लेखक 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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                अपने मन और मान्यता की पुष्टि के लिए मनुष्य विविध उपचार करता है।अपने मन को समझाना, मनाना और प्रसन्न रखना एक दुष्कर कार्य है। मन की इन सभी चाहतों को आकार प्रदान करने के लिए उसे विविध उपचार,उपक्रम, क्रियाएँ और कार्यक्रम करने पड़ते हैं।यदि इन सबसे यह मन मान गया ,तो सब ठीक।अन्यथा कुछ भी ठीक नहीं। इस व्यापक प्रकृति में जो जैसा है ,वह तो है ही।चाह कर भी मनुष्य नकार नहीं सकता। अपने को श्रेय देना उसका अपना मानसिक व्यसन हो सकता है।इसलिए वह अनेक उपक्रमों का भागीदार बनकर अपने को अहो भाग्य मानता हुआ प्रसन्न हो लेता है और स्वयं को कर्ता मानकर संतुष्ट भी हो लेता है कि यह मैंने किया।मैं ही कर्ता हूँ। और अदृश्य इतिहास के पन्ने पर अपना नाम स्वयं ही लिख लेता है। 

             जो सर्वत्र रमता है ,वही राम है।यह अकाट्य मान्यता सर्व विदित भी है। जब यह सर्व विदित है तो जो राम सर्वत्र व्याप्त है , उस राम का आगमन क्या ?जो कहीं गया नहीं है ,वह आएगा कहाँ से ?जो राम तुम में मुझ में सब में प्राण संचार करता है ,उसमें यह मनुष्य प्राण संचार कैसे और क्यों करने चला? परंतु एक क्रिया करनी जो है, दुनिया को अपने कर्तापन का मिथ्या बोध जो कराना है ,इसलिए कुछ करने के लिए कुछ करना भर है। वरना जो कर रहे हैं ,वह पहले से ही अस्तित्व में है और सारी सृष्टि के कण- कण में व्याप्त है, उसे प्राणवंत क्या करना ?

           मानवीय सौन्दर्यप्रियता ने अपने प्रियत्व को साकार करने के लिए अनेक निर्माण कार्य किए। युग युग से करता चला आ रहा है।ये किले, महल,बाबड़ियाँ,सड़कें, बाग - बगीचे मानवीय तुष्टि की पुष्टि के विविध प्रतीक हैं। यदि ये सब नहीं होते तो यह संसार एक माली के उद्यान की तरह सजा सँवरा हुआ नहीं होता।यह सब कुछ उसी प्रकार से है ,जैसे आदमी जीवन का एक वर्ष कम होने पर जन्म दिन मनाता है।अंतर केवल सोच का है , चिंतन का भेद है। किन्तु जीवन का एक वर्ष कम होना नकारात्मक सोच है।जबकि आयु का एक वर्ष अधिक होना सकारात्मक सोच है।कम को ज्यादा मान लेने का चिंतन उसका कुछ बनाता बिगाड़ता नहीं, किन्तु झूठे ही खुश हो लेने से उसकी खुशियों में बढ़ोत्तरी अवश्य हो जाती है। एक ही बात को दूसरे ढंग से मानना ही वर्षगाँठ का आयोजन है।ठीक वैसे ही प्राण प्रतिष्ठा भी एक ऐसा स्वयं तुष्टि का उपक्रम है कि सबमें प्राण प्रतिष्ठा करने वाले राम की प्राण प्रतिष्ठा हम करें।

            पर दृष्टि में अपने को श्रेष्ठ प्रदर्शित करना मानव स्वभाव है। अन्यथा उसके अहं की तुष्टि नहीं हो पाती। इसलिए अपने समस्त दोषों पर नवनीत पॉलिश करते हुए गुण- प्रदर्शन करना उसका स्वभाव ही बन चुका है।इसी क्रम में वह जीवन भर प्रदर्शनों की बारात सजाता रहता है। यद्यपि हमारा समाज और वह व्यक्ति स्वयं भी अपनी औकात को भलीभाँति जानता पहचानता है। इसके बावजूद वह अपनी प्रदर्शन प्रियता से बाज नहीं आता। उसे अपने अस्तित्व को पशु - पक्षियों से अलग जो सिद्ध करना है। भले ही वह उनसे प्रतियोगी बनकर उनसे आगे निकल चुका हो। 

        'मैं कर्ता हूँ' : का बोध मानव की अहं तुष्टि का एक साधन है। जिसका परिणाम दुनिया के सारे उपक्रम हैं। कान को हाथ घुमाकर पकड़ने का नाम ही विविधता है,वरना कान तो कहीं गया नहीं है। उसे चाहे ऐसे पकड़ो या वैसे ;पकड़ना तो कान ही है।बस पकड़ने की विधि और हाथ के घुमाव का अंतर मात्र है। क्रिया एक ही है।यही सब मानवीय संस्कार और सभ्यता है। सभय्ता बाहरी आवरण है तो संस्कृति बाहरी सौंदर्य का एक निदर्शन।आज के युग में सभ्यता और संस्कृति का घालमेल ही नई सभ्यता है। जो क्रमशः अत्याधुनिकता की ओर बढ़ती जा रही है। वास्तविक कर्ता को नकार कर स्वयं को कर्ता बना लेना ही अहं की तुष्टि की साकारता है। जो आज अपने यौवन के चरम पर है। 

 ● शुभमस्तु ! 

 05.01.2024● 12.45प०मा० 

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