शनिवार, 13 जनवरी 2024

मेरी प्रिय वर्णाका ! ● [आलेख ]

 022/2024

 

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 ●© लेखक 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नहीं, तुम मेरे अधीन नहीं हो।मैं तुम्हें जानता हूँ,पहचानता हूँ।मेरे मानस में निवास करती हो।पर मैं कभी भी तुम्हें छू भी नहीं पाता। मैं तुम्हारी चाहत का दास हूँ।अपनी इच्छा से एक शब्द भी लिख पाना मेरे अधिकार से बाहर है।सब कुछ तुम्हारी इच्छा के अधीन है।तुम चाहो तो कुछ लिखा जाता है और यदि तुम न चाहो तो पिपीलिका की टाँग के बराबर भी अंकित नहीं हो पाता। हे देवी !हे महादेवी !! तुम्हें क्या नाम दूँ ? लेखनी कहूँ ?वर्णाका  कहूँ या क्या कहूँ ?नहीं जानता। 

 तुम मेरे ही पास हो। यहीं कहीं विद्यमान हो। पर इन दो चर्म-चक्षुओं से देखना मेरी सामर्थ्य के बाहर है।मेरी प्रज्ञा के किस कोटर में निवास करती हो, यह भी मैं नहीं जानता।तुमने मेरे नाम से मुझे कितने ग्रंथ दिए,अनगिनत रचनाएं दीं। परन्तु आज तक मैं तुम्हें वायु और आकाश की तरह ही समझ पाया। जिस प्रकार आकाश अदृष्ट और व्यापक है,वायु अदृष्ट और जीवनदायिनी है,वैसे ही तुम भी अदृष्ट, व्यापक और इस अकिंचन को जीवन प्रदान करती हो।तुम देखी नहीं जा सकतीं। तुम स्थूल जो नहीं हो। तो भला क्यों और कैसे देख पाऊँगा! तुम्हारी अपनी जो प्रकृति है ,वह विधाता की अनुपम और अलौकिक सृष्टि है।अदृष्ट रहकर भी संसार को चलाने वाली माते! वेद ,पुराण उपनिषद गीता ,रामायण आदि सब तुम्हारी ही देन हैं।न जाने कितने जन को उसके कर्ता होने का श्रेय दिया! मुझे भी दिया है और निरंतर दे रही हो। कैसे करूँ शब्दों में तुम्हारी महिमा का गायन! तुम तुम्हीं हो। किसी से उपमा भी तो नहीं दी जा सकती।अनुपमेय हो। अरूप हो।मेरी साधना की साकारता हो। 

 जिसने जितना जाना ,उतना बखाना। परंतु हे माते! तुम तो विविधरूपिणी हो ,जिसके रूप स्वरूप हैं नाना! तुम हर अक्षर में अक्षर हो, शब्द में, वाक्य में , गीत में ,कविता में ,गद्य में ,संगीत में ,वादन में , वाद्य में वादक में , कवि में ,लेखक में ; कहाँ -कहाँ नहीं हो। मैं एक अकिंचन तुम्हें नमन करता हूँ।परम् पिता परमात्मा से यही प्रार्थना करता हूँ कि जन्म- जन्मान्तर मेरा तुम्हारा अन्तर्सम्बन्ध यों ही इसी प्रकार चलता रहे।मैं तुम्हें जानूँ ,तुम मुझे जानो।निराकार रहकर भी तुम मेरे अस्तित्व का अंग बनकर मेरी आत्मा को सार्थकता प्रदान करो। इससे अधिक और क्या चाह सकता हूँ !मैं एक अकिंचन प्राणी। मेरी प्रिय कल्याणी !

 हे महादेवी ! कब तुम मानस के किस सँकरे कोने में दुबक जाती हो। इस अकिंचन को ढूंढ़वाती हो, पर ढूंढ़ने खोजने पर भी मिल नहीं पाती हो। और कभी यों ही निकल कर बाहर धूम मचाती हो , बिना खोजे मिल जाती हो। यही तो तुम्हारी विचित्रता है। तुम्हारा लुका- छिपी का खेल है। मैं आज तक तुम्हें जानकर भी नहीं जाना ,पहचान कर भी नहीं पहचाना। कैसा है ये तुम्हारा अनौखा ताना - बाना। कौन समझ पाया है तुम्हारा आना - जाना। तुम्हें पसंद नहीं है अपनी राह में कोई भी बाधा। उधर बाधा भी जानती है कि उसका काम ही है मात्र बाधा। इसलिए वह आती है और अवश्य बिना बुलाए अनाहूत चली ही आती है। पर तुम हो कि टूटे को भी जोड़ना जानती हो। बाधा का कहा भी कब मानती हो। क्योंकि तुम भी जब चलने का ,अपने पथ में अग्रसर होने का प्रण जब ठानती हो ,तो किसी भी बाधा को कब पालती हो।

    हे मेरी प्रिय वर्णाका ! मेरी लेखनी ! माननीया महादेवी ! यदि तुम एक बार भी रूपाकार हो तो मैं क्या न कर लूँ ! तुम्हें अपने स्नेह पूर्ण आलिंगन में भर लूँ अथवा तुम्हारे चरण युगल में इस अनिकंचन शीश को धर उबर लूँ।नहीं जानता कि मुझसे क्या हो जाए! यदि कुछ धृष्टता भी हो तो क्षमा दान मिल जाए ! 

 ●शुभमस्तु ! 

 13.01.2024●12.00मध्याह्न।

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