030/2024
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●© शब्दकार
● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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जनतंत्र का
धर्मतंत्र में पलायन,
ज्यों सूरज उत्तरायण,
ठिठुरते हुए भजन गायन,
और कोई उपाय न !
राजनीति जाती
रामरीति की ओर,
ओढ़कर मुखौटा,
बाँधकर लँगोटा,
निर्वसन तो नहीं।
करना है उन्हें वही
जो करते रहे,
जिसे जो सहना है सहे,
कवि क्यों चुप रहे?
अभिनय में
कोई कमी नहीं।
धर्म की आड़
ज्यों हिमालय पहाड़
अंतिम उपाय
ज्यों शीत में चाय!
वाह री सियासत!
'शुभम्' श्रेयत्व का,
अवसरवादिता
भुनाई क्यों न जाए?
धर्मभीरुता के घन
गगन में छाए!
●शुभमस्तु !
18.01.2024●3.30प०मा०
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