014/2024
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●© शब्दकार
● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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सकल सृष्टि में प्रेम पसारा।
बहती जहाँ सृजन की धारा।।
जीव, जंतु, पशु, पक्षी न्यारे।
बने प्रेम के रस से सारे।।
पति -पत्नी जग के नर-नारी।
सुमनित करते जग की क्यारी।।
प्रेम धरा का अमृत प्यारा।
बहती ज्यों गंगाजल धारा।।
बढ़ती घृणा नित्य क्यों जाती?
प्रेम अंश को यहाँ नसाती।।
प्रेम - दान से प्रेम बढ़ेगा।
मानवता के शिखर चढ़ेगा।।
इजरायल हमास क्यों लड़ते?
क्यों न प्रेम का पर्वत चढ़ते??
खून खराबा उचित नहीं है।
किसी ग्रंथ में नहीं सही है।।
कहाँ पुतिन का प्रेम गया है?
मरी हृदय की पूर्ण दया है।।
प्रेम - रीति भारत से सीखे।
पाक अंध को प्रेम न दीखे।।
राधाकृष्ण प्रेम के राही।
बृज भर ने गाथा अवगाही।।
गोपी श्याम प्रेम से भारी।
गूँजी कुंज गली वन क्यारी।।
प्रेम - वंशिका कृष्ण बजाई।
दौड़ी - दौड़ी गोपी धाई।।
नंद यशोदा देवकि मैया।
दाऊ कृष्ण प्रेम रस छैया।।
'शुभम्' प्रेम की धार बहाएँ।
घर -घर में नित स्वर्ग बसाएँ।।
बैर छोड़ भारत को भर दें।
प्रेम सुधा आप्लावित कर दें।।
● शुभमस्तु !
08.01.2024● 11.30 आ०मा०
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