679/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
-1-
करता रहता कर्म जो, रह सक्रिय दिन - रात।
पाता वही प्रवीणता, बनता कर्म प्रभात।।
बनता कर्म प्रभात, वही है अनुभव लाता।
अनुभव का पाथेय,समुज्ज्वल जीवन ध्याता।।
'शुभम्' रहा जो बैठ,शून्य अनुभव के मरता।
प्रगति पंथ से रूठ, ज्ञान फल सुलभ न करता।।
-2-
अपने जननी-जनक सब, हैं अनुभव - भंडार।
उनसे ही सब लीजिए, जीवन पथ आगार।।
जीवन पथ आगार, काम अनुभव वह देता।
जो संतति वह ज्ञान, पिता-माता से लेता।।
'शुभम्' त्याग दे मूढ़, अज्ञता देख न सपने।
ले अनुभव की ज्योति, पिता -माता जो अपने।।
-3-
अनुभव के भंडार में, नित करना संवृद्धि।
जीवन में आए तभी, शांति सुखद समृद्धि।।
शांति सुखद समृद्धि, ज्ञान को भरसक बाँटे।
नहीं घटे भंडार, नहीं पथ में हों काँटे।।
'शुभम्' करे शुभ कर्म, बिगाड़े मत अपना ढव।
बढ़े नित्य नित्य भंडार,सुलभ कर दुर्लभ अनुभव।।
-4-
अनुभव वह पाथेय है, जीवन भर दे काम।
बुरे समय में साथ दे, पथ बनता अभिराम।।
पथ बनता अभिराम, नहीं धोखा वह खाए।
चले स्वयं सद राह, अन्य को राह बताए।।
'शुभम्' न मारे डींग, नहीं कर तू कोरा रव।
संभव हो वह सीख, जिंदगी से नर अनुभव।।
-5-
अपने - अपने पुत्र को, सब देते हैं सीख।
स्वावलंब आधार से, नहीं माँगनी भीख।।
नहीं माँगनी भीख, स्वयं निज राह बनाए।
कंटक हों या शूल, पार उनमें हो जाए।।
'शुभम्' नहीं उद्धार, कराते तुझको सपने।
भर अनुभव आगार, वही हैं तेरे अपने।।
शुभमस्तु !
14.11.2025●4.15 आ०मा०
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