698/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
फुनगी पर
बैठी है
केसरिया धूप।
कुम्हलाए दिन
अगहन के
अनभाई रात
हिम कन-सी
जमती है
प्रीतम की बात
बदले हैं
दिनकर भी
भभराया रूप।
नीड़ों में
खग शावक
करते हैं शोर
मेड़ों के
पीछे कुछ
नृत्य करें मोर
देख लिया
छिप-छिप कर
लगा गए चूप।
अरहर को
पाले की
पड़ती जो थाप
थर -थर कर
कंपित है
याद आए बाप
भाप उठी
अंबर में
जागे हैं कूप।
शुभमस्तु !
28.11.2025●1.45 प०मा०
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