बुधवार, 26 नवंबर 2025

उलझन [ चौपाई ]

 688/2025


          

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


उलझन  में   है      देश  हमारा।

कैसे  बचे    देश    ये       सारा।।

मत  का    लोभी  है   हर   नेता।।

आश्वासन  के       अंडे    सेता।।


घुसपैठिए   बिलों      में       भारी।

फैला  रहे           बड़ी      बीमारी।।

उलझन  में  जनता     है    सारी।

जन- धन    की होती  नित ख्वारी।।


वेश  बदल    कर     वे  घुस  आते।

सब  आधार      कार्ड     बनवाते।।

उलझन ये      पहचान   नहीं  हैं।

देशद्रोह  की     नब्ज़      यहीं     हैं।।


वे     अपराध       हजारों     करते।

दस-दस    मारें     एक   न   मरते।।

उलझन  यही  त्राण     कब  पाएँ।

आस्तीन      के      साँप     नसाएँ।।


बना   बिलों     में      रहते      सारे।

हरी  ध्वजा  के      लगते       नारे।।

उलझन  में    सरकार       हमारी।

उजड़  रही  भारत     की   क्यारी।।


उलझन  से    बाहर      जो आना।

रोहिंग्या    को       दूर      भगाना।।

तभी  देश      का      दूषण   जाए।

जन-जन    बाल     वृद्ध  मुस्काए।।


'शुभम्'   चलो      पहचान     बनाएँ।

उलझन से  जन- मुक्त     कराएँ।।

नहीं  धर्म   की    हैं    हम    शाला।

खाने    वाला        चाट - मसाला।।


शुभमस्तु !


24.11.2025●8.15 आ०मा०

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