692/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
अलगनी पर
धूप टाँगे
मुस्कराते भानु दादा।
ओढ़कर चादर
हिमानी
चल पड़े हैं राह अपनी
थरथराते
हम धरा पर
शीतकारी देह कँपनी
पश्चिमांचल
जा रहे वे
कर रहे आने का वादा।
पौष अगहन
माघ की ही
बात है थोड़ा निभाओ
है विवशता
भी हमारी
अगर मानव जान जाओ
रंग खेलो
होलिका के
अब बनो मत और नादाँ।
देर से
मुझको जगाए
लाल ऊषा मुस्कराती
क्या करूँ
दिन भी सिमटते
ठंड भी मुझको सताती
जानता
तुमको सताऊं
है नहीं कुत्सित इरादा।
शुभमस्तु !
27.11.2025●11.30आ०मा०
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