शुक्रवार, 7 नवंबर 2025

शब्दों के उद्यान में [ अतुकांतिका]

 666/2025


           


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


शब्दों के उद्यान में

मैं खेलता रहा

भूले हुए अस्तित्व को

अपने में मग्न 

संलग्न निज ध्येय में,

वही मेरा यथार्थ 

गंतव्य जो बन गया था।


भटकाया भी गया मुझे

अपने कर्तव्य पथ से

गिराया भी गया सदा

मुझे मेरे रथ से ,

पर मैं रुका नहीं

चलता रहा

और चलता ही रहा

अपना गंतव्य 

पा लेने तक।


बन गईं

बाधाएँ मेरी प्रेरणाएँ

करता रहा 

मैं अनवरत गवेषणाएँ

वही तो थीं मेरी

प्रेरणाएँ

कोई करता रहा

 कांय - कांय

आँयं बाँयं सायं।


नहीं बहा मैं

नदी के प्रवाह के साथ

बनाई गई मेरे हाथों

नई राह 

मन में भरा हुआ था उछाह।


चलो चलें 

अपना रास्ता 

स्वयं बनाएँ

भूले बिछड़ों को

दिये जलाकर

नया मार्ग दिखाएँ।


शुभमस्तु !


06.11.2025 ● 11.00प.मा.

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