शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

रातें रजाई में रमी हैं [ नवगीत ]

 691/2025


        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सिमटते दिन

कम्बलों में

रातें रजाई में रमी हैं।


दाँत की पाँतें

बजातीं

कट- कटाहट कट -कटाहट

नाक की नाली

बहातीं

सुरसुराहट - सुरसुराहट

बाजरे के

बूलरे पर

हिम तुषारों की जमी है।


शकरकंदी

गर्म मीठी

सोंधती है  गंध न्यारी

डाल पाटल की

खिली है

जाफ़री की रम्य क्यारी

आसमा से

इस जमीं तक

शीत की शीतल नमी है।


गर्म रोटी

बाजरे की

गुड़-घृती भाने लगी है

साग सरसों की

महक यों

घ्राण में आने लगी है

देख कोहरा

श्वेत बाहर

लगता हमें कुछ तो कमी है।


शुभमस्तु !


27.11.2025●10.45आ०मा०

                      ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...