बुधवार, 12 नवंबर 2025

जटिल अंतर्जाल [ अतुकांतिका ]

 677/2025


          


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अंतर्जाल बुद्धि का

अत्यंत ही जटिल है,

एक से एक कुशाग्र

कोई अति कुटिल है,

विराट ब्रह्मांड ।


एक शिक्षक

एक भिक्षुक

कोई पुलिस

कोई चोर,

कहीं कूक

कोयल की

कौवे की

 काँव-काँव कहीं

जंगल में कहीं

सिंह दहाड़ता

करता हुआ जोर।


सबके अलग मस्तिष्क

अलग ही सोच

कोई बहुत सुदृढ़

कोई अति पोच,

पड़ गया वेतन भी कम

ले रहा उत्कोच,

जिंदा माँस नोच -नोच।


सबका अलग अंतर्जाल

प्रकृति का कमाल,

इधर दुनिया में 

हो रहा धमाल,

बवाल ही बवाल।


जितने जन 

उतने मन

उतने अंतर्जाल

आदमी ही आदमी की

खींच रहा खाल,

झूठे ये नाते रिश्ते

सबकी अर्थ ताल,

कहने को धर्म दया

पर सवाल ही सवाल।


आदमी में आदमी का

रंग बना जाति,

जाति जाति कर जिए

जूझता बहु भाँति,

विराटता में संकीर्णता का

क्या ही  ये धमाल,

जटिल अंतर्जाल।


शुभमस्तु !


11.11.2025●9.30आ०मा०

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