663/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
जीवन के
इस उपन्यास में
लगती हो तुम महानायिका।
एक- एक
प्रकरण में पाया
खंड नहीं कोई भी खाली
दिखती है छवि
छंदमई तव
विद्यमान तुम भव्य विशाली
गाती लोकगीत
नर्तित हो
मेरे उर की प्रणय गायिका।
पंक्ति-पंक्ति के
शब्द -शब्द में
उपन्यास करता अभिनंदन
बियावान में
ज्यों महका हो
परम प्रीति का सोना चंदन
टपक रहा
लालित्य लवणता
क्या कुछ की तुम नहीं दायिका।
आदि मध्य
या अंत सभी में
अनुस्यूत रेशम का धागा
बिंदु-बिंदु में
मनके खनके
मेरा सुप्त-
प्राय मन जागा
शांति दायिनी
प्रेम पिपासा
तापों की उन्मुक्त दाहिका।
शुभमस्तु !
03.11.2025●12.45 प०मा०
●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें